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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
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यथा सुगतज्ञानम् तथा च केवलज्ञानमिति । यथा च सामान्य विशेषात्मकं वस्तु तथा प्रतिपादितमनेकधा ।
होढदानमपि सूत्रस्यान्यथाव्याख्यानादुपपन्नम् । तथाहि - न पूर्वप्रदर्शितस्तत्रार्थः किन्त्वयम् - केवली इमां रत्नप्रभां पृथिवीं यैराकारादिभिः समकं = तुल्यं जानाति न तैराकारादिभिः तुल्यं पश्यतीति किमेवं ग्राह्यम् ? 'एवम्' इत्यनुमोदना । ततो हेतौ पृष्टे सति तत्प्रतिवचनं भिन्नालम्बनप्रदर्शकम् ' तत् ज्ञानं साकारं भवति 5 यतो दर्शनं पुनरनाकारमिति', अतो भिन्नालम्बनावेतौ प्रत्ययाविति । इदं चोदाहरणमात्रं प्रदर्शितम् । एवं च सूत्रार्थव्यवस्थिती पूर्वार्थकथनमालदानेव । 'जं समयं' इत्यत्र जं- शब्दे अम्-भाव: प्राकृतलक्षणात् णीया लोवमभूया आणीया दो वि बिंदु-दुब्भावा ।
अत्थं वर्हति तं चिय जो च्चिय सिं पुव्वनिद्दिट्ठो ।। [ 1
ग्राहक होने से मिथ्या ही होगा । तथा, उभयात्मक वस्तु में सिर्फ विशेषावगाही जो ज्ञान है वह भी 10 मिथ्या है जैसे बौद्ध का सिर्फ व्यावृत्तिग्राहक ज्ञान । केवलज्ञान भी तथैव व्यावृत्ति (विशेष) ग्राहक होने से मिथ्या ही होगा। पहले अनेक बार कहा जा चुका है कि वस्तुमात्र सामान्यविशेषोभयात्मक ही होती है।
[ सूत्र की विपरीतव्याख्या से होढदान दूषणप्राप्ति ]
सिद्धान्ती कहते हैं कि सूत्र की विपरीत व्याख्या करनेवाले भगवान के सीर पर आल चढाने 15 के दोष के भागी बनते हैं कैसे यह देखिये पहले जो 'जं समयं... तं समयं' का अर्थ 'जिस समय में... उस समय में' ऐसा किया है वह वास्तविक नहीं है । वास्तविक अर्थ ऐसा है (गौतमस्वामी भगवान को पूछते हैं -) क्या हम ऐसा मान सकते हैं कि इस रत्नप्रभा पृथ्वी को केवली जिन आकार आदि से समक यानी तुल्य जानते हैं क्या उन आकारादि से समक = तुल्य नहीं देखते हैं ? ( भगवान उत्तर देते हैं हन्ता = हाँ गौतम ! केवली ...इत्यादि । यहाँ सूत्र में 'एवम्' शब्द 20 प्रश्न की अनुमोदना का द्योतक समझना। बाद में जब गौतम गणधर पुनः प्रश्न करते हुए उस के हेतु की पृच्छा करते हैं तब जो भगवान उत्तर देते हैं वह ज्ञान-दर्शन की भिन्नविषयता का ही प्रदर्श है। 'क्योंकि वह ज्ञान साकार होता है और दर्शन निराकार होता है।' अत एव ये दोनों प्रतीतियाँ भिन्नविषयक हैं ( न की भिन्नकालीन) । यह तो आलदान का सिर्फ एक नमूना दिखाया ( कि सूत्र का
अर्थ जैसा करना चाहिये उस से विपरीत अर्थ कर के 'भगवान् ने ऐसा ही कहा है' ऐसा गलत 25 जाहीर करना ।) सूत्रार्थ तो कुछ और ही निश्चित हो रहा है, फिर भी वैसा पूर्वप्रतिपादित गलत अर्थ कर के भगवान के नाम पर चढा देना यह आलदान ही है।
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यहाँ शब्दार्थ करने में ध्यान में लेना कि 'जं समयं' इस पदावली में जं-शब्द में 'जेहिं' ऐसी तृतीया विभक्ति का ‘हिं' प्रत्यय होने के बजाय अथवा 'जस्समयं' ऐसा समास होने के बजाय 'अम्' भाव किया है वह प्राकृत भाषा की लाक्षणिकता है। प्राकृतलक्षण में कहा जाता है " (कहीं लोप 30 न होने पर भी) लोप प्राप्त होता है तो ( कहीं शब्द में न रहते हुए भी) बिन्दु (अम्) और द्विरुक्ति
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4. नीतौ लोपमभूतौ आनीतौ द्वावपि बिन्दु-द्विर्भावौ । अर्थं वहन्ति तमेव य एव तयोः पूर्वनिर्दिष्टः । । (द्रष्टव्यं - चेइयवंदणमहाभासे ( गाथा - ६९१) - देवनाग-सुवन्नकिन्नरगणस्सब्भूय.. इत्यत्र देवं - इति बिन्दुप्रयोगः 'स्स' इति सकारद्वित्वं च ।
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