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खण्ड-४, गाथा-१
४४१ शब्दस्य चाप्तप्रणीतत्वेन सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थविषयस्य यथा प्रमाणान्तरत्वं तथा प्राक् (पृ.३८७ त:) प्रतिपादितम्। अर्थापत्तेश्च प्रमाणत्वेनानुमानेऽन्तर्भावनं (४०९-२) सिद्धसाधनमेव । अभावस्य च पृथगप्रामाण्यप्रतिपादनमस्माकमभीष्टमेव (४१३-८) सदसदात्मकवस्ततत्त्वग्राहिणाऽध्यक्षेण यथाक्षयोपशमं भावांशवदभावांशस्यापि ग्रहणात्। केवलं क्वचिदुपसर्जनीकृतसदंशस्य प्रधानतयाऽसदंशस्य ग्रहणं क्वचिच्च विपर्ययेण । न च सदंशाऽसदंशयोरेकान्तेन भेदोऽभेदो वा उभयात्मकतया जात्यन्तररूपस्य वस्तुनो विरोधादि- 5 दोषविकलस्य साधितत्वात् । तेनैकान्तभेदाभेदपक्षावाश्रित्यानवस्थादि सकलमेव दूषणजातमनास्पदम् अध्यक्षप्रमाणप्रसिद्ध सदसदात्मके वस्तुनि सर्वस्य दूषणत्वेनाभिहितस्य तदाभासत्वात्। उपमानादेरप्यविसंवादकस्य प्रमाणत्वे सर्वस्य परोक्षेऽन्तर्भावात् अन्यसंख्याव्युदासेन प्रत्यक्ष परोक्षं चेति द्वे एव प्रमाणे अभ्युपगन्तव्ये अन्यथा तत्संख्यानवस्थितेः। [ परोक्षप्रमाणस्वरूप-विभागप्रदर्शकं जैनमतम् ]
10 किं पुनरिदं परोक्षम् ? अविशदमविसंवादि ज्ञानं परोक्षम्। तेन [ ]अन्य दार्शनिक प्रमाणान्तर मानते हैं) को भी ‘अनुमान' के रूप में स्वीकार कर के प्रमाणान्तर का अनुमान में अन्तर्भाव करते हैं - वह अयुक्त ही है, क्योंकि वहाँ न तादात्म्य प्रतिबन्ध है न तो त्रित्वयुक्त हेतु है, है तो सिर्फ अविनाभाव ही है।
[जैन मतानुसार शब्दादिप्रमाण ] - सामान्यविशेषसमन्वितबाह्यार्थविषयक शब्द यदि आप्तभाषित है तो वह स्वतन्त्र प्रमाण है - यह । पहले (३८७-१८) कहा जा चुका है। अर्थापत्ति को प्रमाणभूत मान कर उस का अनुमान में अन्तर्भाव किया जाय वह (४०९-१३) हमारे लिये सिद्धसाधन ही है। अभाव के पृथक् प्रमाण का निरसन भी हमें अभिमत ही है (४१३-२४) क्योंकि हमारे मत से प्रत्यक्ष सदसद् उभयात्मक वस्तुतत्त्व ग्राहक होता है। जैसा क्षयोपशम (ज्ञानशक्ति), कभी उस वस्तु के भावांश को तथा कभी उस वस्तु के अभावांश 20 को प्रत्यक्ष ग्रहण करता है। विशेष इतना है कि कभी सदंश गौण रहे और प्रधानतया असदंश का ग्रहण होता है, तो कभी उस से उलटा होता है। जैन दर्शन में, सदंश-असदंश परस्पर मिल कर ही एक वस्तु में रहते हैं, उन का न तो एकान्त से भेद है न अभेद है। उभयांशमिलित एकात्मक नृसिंहतुल्य जात्यन्तरस्वरूप ही वस्तु मानी गयी है। इसमें कोई विरोधादि दोष का स्पर्श नहीं है। पहले यह तथ्य साध लिया गया है। अतः अनेकान्तवाद में वे अनवस्थादि कोई दूषण नहीं लगता 25 जो एकान्तभेद या एकान्त अभेद पक्ष में परस्परविरोधी मतवादियों ने आरोपित किये हैं। कारण :प्रत्यक्ष प्रमाण से जब वस्तुमात्र सद्-असदात्मक सिद्ध होती है तब दूषण के रूप में प्रयुक्त सर्व दोष दोषाभास हैं। प्रमाणभूत जितने भी अविसंवादी उपमानादि हैं वे सब परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भूत हो जाते हैं। अतः शेष संख्या को हठा कर दो ही प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष मान्य करने लायक है, ऐसा नहीं माने तो भिन्न भिन्न वादी अपनी अपनी ओर से अभावादि एक एक प्रमाण बढाते ही 30 रहेंगे तो प्रमाण की इयत्ता को कोई लगाम ही नहीं रहेगी।
[जैनमतानुसार परोक्षप्रमाण के लक्षण और प्रकार ] प्रश्न :- यह परोक्ष ज्ञान (प्रमाण) क्या है ? उत्तर :- अविसंवादी किन्तु अस्पष्ट हो ऐसा ज्ञान
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