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________________ ४४० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ व्याप्तः साकल्येनाऽसिद्धौ प्रकृतोऽपि क्षणभङ्गो भावानां न सिद्धिमासादयेत्। यथा च तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धग्रहणं परपक्षे न संभवति तथा असकृत् प्रतिपादितम् । तेन ‘त्रिसंख्यहेतुव्यतिरिक्तेषु तथाविधप्रतिबन्धाभावादविनाभावस्य हेतुत्वव्यापकस्याभावाद्धेत्वाभासत्वम्' इति यदुक्तं (३३७-७) तन्निरस्तं दृष्टव्यम् यथोक्तप्रतिबन्धेन त्रित्वस्याऽविनाभावस्य चाऽव्याप्तः, उक्तन्यायेन तेनैव तयोर्व्याप्तेः। अतः 5 'संयोग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः'...(प्र०वा०४-२०३) इत्यादि (३३९-६) सर्वमयुक्ततया व्यवस्थितम् । यथोक्तहेतुप्रभवस्य च साध्यनिश्चयस्यानुमानत्वेऽन्यतः सम्बन्धात् सामान्याकारेण प्रतिपत्तिरनुमानमित्यादि प्रमाणान्तरस्य तत्रान्तर्भावप्रतिपादनमयुक्तम् यथोक्तन्यायात्। में अनुपलब्धि की व्याख्या में जो विशेषण है 'उपलब्धिलक्षण को प्राप्त होते हुए' वह भी निरर्थक है। कारण, अन्यव्यक्तिनिष्ठ चैतन्य, भूत का ग्रह (आवेश) आदि अदृश्य होने पर भी (यानी 10 उपलब्धिलक्षणप्राप्त न होने पर भी) उन का कहीं कहीं अभाव सिद्ध होता ही है। तथा अन्य व्यक्तिनिष्ठ दाहादि अदृश्य होने पर भी उस से होनेवाले दाहादि का व्यवहार दिखता है, उस का अभावव्यवहार नहीं होता। [ उपलब्धिलक्षण अप्राप्त से भी अभावानुमान ] यदि उपलब्धिलक्षण अप्राप्त की अनुपलब्धि से अभाव की सिद्धि नहीं मानेंगे तो 'यह जीवंत 15 देह आत्मशून्य नहीं है क्योंकि प्राणादिशून्यता की प्रसक्ति होगी' - इस प्रयोग से अदृश्य (= उपलब्धिलक्षण अप्राप्त) आत्मा की अनुपलब्धि से निरात्मकता का अभाव सिद्ध नहीं हो सकेगा, फलतः घटादि में भी निरात्मकता की सिद्धि नहीं हो सकेगी और स्थायी आत्मा सिद्ध हो जाने से बौद्धों की यह व्याप्ति 'जो सत् होता है वह क्षणिक होता है' वह भी सर्वभावों में व्यापकरूप से सिद्ध न होने के कारण, बौद्धमान्य भी भाव क्षणभंगसिद्धि का मुख नहीं देख सकेगा। 20 बौद्धमत में तादात्म्य-तदुत्पत्ति स्वरूप प्रतिबन्ध का ग्रहण कैसे असंभव है यह तो बार बार कहा जा चुका है। अत एव – “तीन प्रकार के हेतु से अतिरिक्त हेतु में, विवक्षित (कार्यादिरूप) प्रतिबन्ध के न होने से, हेतुत्वव्यापक अविनाभाव न रहने से हेत्वाभासता का कलंक नहीं टलेगा।" - (३३७२९) ऐसा जो बौद्धों का कथन है वह निरस्त हो जाता है। पूर्वकथित तादात्म्यादि प्रतिबन्ध के लिये यह कहना कि अविनाभाव या त्रित्व उन का व्याप्य है यह गलत है, सच तो यह है कि अविनाभाव 25 का ही तादात्म्य-तदुत्पत्ति दोनों है। त्रित्व के विना भी अविनाभाव हो सकता है, अविनाभाव के विना त्रित्व नहीं हो सकता। यानी अविनाभाव के विना तादात्म्य-तदुत्पत्ति प्रतिबन्ध नहीं हो सकता है। तादात्म्यय-तदुत्पत्ति प्रतिबन्ध के विना अविनाभाव हो सकता है। अत एव पहले जो (प्र०वा०४-२०३) कहा था (३३९-१९) 'संयोगी आदि (हेतुओं) में जहाँ कोई तथाविध (तादात्म्य-तदुत्पत्ति रूप) प्रतिबन्ध नहीं है (वे हेतु नहीं है...) वह सब अनुचित सिद्ध होता है। [ तादात्म्यादि अन्यसम्बन्धप्रयोज्य प्रतीति अनुमान कैसे ? ] बौद्ध जो कहता है कि तादात्म्यादि प्रतिबन्धवाले त्रित्व युक्त हेतु से जन्य साध्यनिश्चय अनुमान है तो फिर अन्य सम्बन्ध (एकार्थसमवायादि) से सामान्याकाररूप से होनेवाली प्रतिपत्ति (जिस को 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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