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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ संदिग्धो व्यतिरेको भवेत् ? तस्मात् परिणाम्यात्मव्यतिरेकेण जीवच्छरीरस्य प्राणादिमत्त्वमनुपपन्नम् निरंशस्यैकपरमाणुवत् तदुपकाराऽसम्भवाच्च कूटस्थेन निरंशक्षणिकविज्ञानपरमाणुसन्ततिरूपेण वात्मना सात्मकत्वसाधने तस्येष्टविघातकृद् विरुद्धः प्राणादिमत्त्वादिहेतुः प्रसज्यते।
अथ साध्याभावे सर्वत्र साधनाभावो व्यतिरेकः । साधनसद्भावेऽपि साध्यसद्भावाभावे व्यतिरेक एव 5 न भवेत् साधनाभावेन साध्याभावस्याऽव्याप्तत्वात्। य एव च साध्यसद्भाव एव साधनसद्भावः स
एवान्वयः। स च दृष्टान्तधर्मिणमन्तरेणापि साध्यधर्मिण्यपि विपर्यये बाधकप्रमाणबलाद् निश्चीयमानः कथमसन् ? न चैवं पक्षत्वेनेच्छाव्यवस्थितलक्षणेन तत्र पारमार्थिकस्य सपक्षत्वस्य बाधा - अन्यथा साध्यधर्मिण्येव हेतुः अविद्यमानसाध्यधर्मे वर्तमानो विरुद्ध: स्यात् - इति तत्र तद्युक्त एव वर्तमानः कथं
न सपक्षवृत्तिः ? इति यत्र व्यतिरेकसद्भावस्तत्रावश्यमन्वयः यत्र चासौ तत्रावश्यंभावी व्यतिरेक इति 10 नैकसद्भावे द्वितीयस्याभावः।
उत्तर :- यदि कारणभेद विना भी कार्यभेद होता है तब तो एक ही अनेकक्षणस्थायि वस्तु हो और उस से भिन्न भिन्न काल में क्रमश: अर्थक्रिया भी हो क्या विरोध है ? स्थायिभाव में क्रम या यौगपद्य से अर्थक्रिया न घटने से स्थायिभाव की सत्ता का अभाव कैसे कह सकते हैं ? यदि नित्य
आत्मा की सत्ता असम्भव ही हो तब तो घटादि में सात्मकत्व की संदिग्धता का उल्लेख क्यों किया 15 था ? (असंभव वस्तु का कभी संदेह नहीं होता।) फिर निरात्मक घटादि से प्राणादिमत्त्व के व्यतिरेक
का संदेह कैसे उठाया था ? अतः स्पष्ट है कि परिणामी आत्मा के विना जीवंत शरीर में प्राणादिमत्त्व की संगति अशक्य है। निरंश नित्य परमाणु की तरह आत्मा अपरिणामी होता तो उस से किसी भाव ऊपर उपकार का होना असंभव है। प्राणादिमत्त्व में परिणामी आत्मा की ही व्याप्ति मेल ख
है। अत एव कूटस्थ आत्मा की सिद्धि के लिये प्राणादिमत्त्व हेतु कहेंगे, अथवा निरंश क्षणिकविज्ञान20 परमाणुसन्तान स्वरूप आत्मा की सिद्धि के लिये (उक्त दो प्रकार से सात्मकत्व सिद्ध करने जायेंगे
तो) प्राणादिमत्त्व हेतु कूटस्थनित्यत्व या क्षणिकत्व का विरोधी होने से विरुद्ध हेत्वाभास बन कर इष्ट सिद्धि में विघात कारक बन जायेगा।
[ व्यतिरेक रहने पर अन्वय के अवश्यंभाव की शंका ] शंका :- व्यतिरेक की व्याख्या है जहाँ भी साध्य न हो वहाँ साधन भी न हो। साधन की 25 सत्ता हो और साध्यसत्ता न हो - इस को कभी व्यतिरेक नहीं कहा जाता, क्योंकि वहाँ ‘साधन
न हो तब साध्य भी न हो' ऐसी व्याप्ति नहीं होती। अन्वय की व्याख्या है ‘साधन की सत्ता तभी होगी जब वहाँ साध्य होगा।' दृष्टान्तधर्मी के न होने पर भी, विपक्ष में बाधक के बल से साध्यधर्मी (पक्ष) में उस अन्वय का जब निश्चय शक्य हो तब यह कैसे कहा जा सकता है कि अन्वय असत्
है ? जब अन्य दृष्टान्तधर्मी न मिले तब पक्ष को ही सपक्ष मानने में क्या बाधा है ? पक्ष का 30 लक्षण सिषाधयिषारूप इच्छा से गर्भित ही होता है, किन्तु पारमार्थिक सपक्षत्व को इच्छागर्भितस्वरूपवाले
पक्षत्व के साथ क्या विरोध है ? यदि साध्यधर्मी (= पक्ष) में ही हेतु साध्यधर्म न होने पर भी विद्यमान होगा तब तो वह विरुद्ध हेत्वाभास हो जायेगा। अतः साध्यधर्म से युक्त ही पक्ष बन जाने
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