________________
खण्ड-४, गाथा-१
४१५ व्यावृत्तपदार्थसामोद्भूततदाकारदर्शनानन्तरं विकल्पद्वयम् ‘इदमत्रास्ति' 'इदं नास्ति' इति दर्शनसामर्थ्यभावि तद्गृहीतमेवार्थमुल्लिखदुपजायते। तत्र दर्शनमेव भावाभावयोः प्रतिपादकत्वात् प्रमाणं न तु विधिप्रतिषेधविकल्पो, गृहीतग्राहित्वात्, अन्यभावलक्षणस्य भावाऽभावस्याध्यक्षेणैव सिद्धत्वात्। व्यवहार एवान्योपलब्ध्याऽपि साध्यते - स्वयमेव वा 'नास्तीह घटः' इति विकल्पयति, न च तावता प्रमाणान्तरत्वं यथादृष्टस्यैव विकल्पनात्। सकलत्रैलोक्यव्यावृत्तस्वरूपस्याध्यक्षेण ग्रहणेऽपि य एव निराकर्तुमिष्टो घटादि- 5 कोऽर्थः स एव व्यवच्छिद्यते नान्यः । तेन 'न प्रत्येक्षण घटादीनामभावो गृह्यते तस्याभावविषयत्वविरोधात्, नाप्यनुमानेन हेत्वभावात्' इत्यादि (३९८-२।५) यदुक्तम् तन्निरस्तं दृष्टव्यम् ।
तृतीयपक्षस्य पुनरसम्भव एव आत्मनोऽभावात् । भावेऽपि तस्य ज्ञानाभावे कथं वस्त्वभावावेदकत्वम् वेदनस्य ज्ञानधर्मत्वात् ज्ञानविनिर्मुक्तात्मनि च तस्याभावात्। अथ 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्' ( ) इति वचनात् तस्यैतद्रूपतेष्यते' तर्हि 'ज्ञानविनिर्मुक्त' इति न वक्तव्यम् स्वरूपहानिप्रसक्तेः, पुरुषस्यैव च 10 प्रमाण नहीं है। स्मृति से ऐसा ज्ञान यहाँ उत्पन्न होता है जो प्रतियोगि का उल्लेखकारी होता है। वह ज्ञान प्रत्यक्ष के बल पर उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्षगृहीत अर्थ ही उस में (प्रतियोगी के रूप में) भासता है। पहले तो सकल त्रैलोक्यवर्ती पदार्थों से व्यावृत्त (= स्वतन्त्र) पदार्थ के संनिकर्षबल से तत्पदार्थसमानाकार दर्शन (प्रत्यक्ष) उत्पन्न होता है, उस के बाद स्मृति के द्वारा उपरोक्त ज्ञान उत्पन्न होता है, उस के दो प्रकार हैं - १, 'यहाँ वह है', 'वह नहीं है।' स्मृति प्रमाण नहीं है, दर्शन 15 ही भाव का या अभाव का प्रकाशक होने से प्रमाणभूत है। विधि-प्रतिषेध के उक्त दो विकल्प तो (प्रत्यक्ष से) गृहीत का ग्राही होने से प्रमाण नहीं है। भाव का अभाव क्या है - अन्यभावस्वरूप है, वह तो प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है न कि अभावप्रमाण से। अन्यभाव की उपलब्धि कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है, उस से तो केवल अभाव का व्यवहार ही प्रचलित किया जाता है। अथवा अन्योपलब्धि से भले ही 'यहाँ घट नहीं है' ऐसा स्वयं विकल्प निपजाया जाय किंतु फिर भी वह प्रमाणान्तर 20 नहीं है क्योंकि जैसा दर्शन ने पूर्व में देखा था वैसा ही विकल्प उस से निपजाया जाता है।
यह विशेष ज्ञातव्य है - प्रत्यक्ष से तो सकल त्रैलोक्य व्यावृत्त भूतलादिस्वरूप गृहीत होता है। फिर भी उस के बाद सारे त्रैलोक्य का 'त्रैलोक्यं नास्ति' ऐसा निषेध करने की विवक्षा नहीं होती इसलिये वैसा निषेध-उल्लेख नहीं किया जाता; किन्तु जो कुछ घटादि अर्थ के निषेध की विवक्षा रहती है उसी का 'घटो नास्ति' इस ढंग से व्यवच्छेद किया जाता है। अत एव वह पूर्वोक्त (३९८-१ आशंका कि – ‘प्रत्यक्ष से तो घटादि का अभाव गृहीत नहीं हो सकता, क्योंकि वह (भावविषयकमात्र होने से) अभाव विषयत्व का विरोधि है। अनुमान से भी उस का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि उस के लिये कोई हेतु नहीं है।' – इत्यादि कहा था वह सब निरस्त समझ लेना ।
[ अभावप्रमाण के तीसरे प्रकार की समीक्षा- बौद्ध ] ____ अभाव का तीसरा प्रकार :- ‘ज्ञान विनिर्मुक्त आत्मा' यह संभव नहीं है क्योंकि हमारे बौद्ध मत 30 में 'आत्मा' पदार्थ ही नहीं है। यदि उस की सत्ता है तो भी जब वह ज्ञानशून्य है तो वस्तु के अभाव का आवेदन कैसे करेगा ?, वेदन तो ज्ञानधर्म है। ज्ञानशून्य आत्मा में ज्ञानधर्मस्वरूप वेदन कैसे हो
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org