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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वं भवेद् बोधरूपत्वात्। 'अभ्युपगम्यत एव' इति चेत् ? तर्हि 'बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम्' इति न वक्तव्यम्। ततः प्रमाणपञ्चकाभावो ज्ञानविनिर्मुक्तात्मलक्षणश्चाभावः प्रमाणं न भवति। तदन्यज्ञानलक्षणश्चाभावः प्रत्यक्षमेवेति न प्रमाणान्तरमभावः।
यच्च अभावस्य प्रागभावादिभेदतश्चातुर्विध्यं वस्तुस्वरूपत्वं च प्रतिपादितम् (३९९-६) तदसंगतमेव । 5 यतः स्वस्वभावव्यवस्थितयः सर्व एव भावा नात्मानं परेण मिश्रयन्ति तस्यापरत्वप्रसक्तेः । न चान्यतो
व्यावृत्तस्वरूपाणामेषां भिन्नोऽभावांश: संभवति तद्भावे वा तस्यापि पररूपत्वात् भावेन ततोऽपि व्यावर्तितव्यम् इत्यपराभावपरिकल्पनयाऽनवस्थाप्रसङ्गतो न कुतश्चित् भावेन व्यावर्तितव्यम् इति द्रव्यमेकं विश्वं भवेत्। ततश्च सहोत्पत्त्यादिप्रसङ्गः परभावाभावाच्च व्यावर्त्तमानस्य भावस्य पररूपताप्रसक्तिरिति पूर्वोक्त एव
दोषः। न चेतरेतराभावात्मकत्वे भावानां घटाभावात्मकात् कटाद् व्यावर्त्तमानः पटो यथा न घटः तथा 10 परभावाभावादपि निवर्तमानस्य तस्य न पररूपतेति वक्तव्यम्- यतो नास्माकं घटात् पटो भिन्नः
कटलक्षणाभाववशात् यतो निवर्तमानस्य ततस्तस्य घटरूपताप्रसक्तिर्भवतामिव। अपि तु स्वस्वभाववशात्
सकता है ? यदि कहें कि – 'चैतन्य पुरुष का स्वरूप है' इस वचनसाक्षि से आत्मा की ज्ञानरूपता अमान्य नहीं है अतः वह वस्तु के अभाव का आवेदन कर सकता है' - अरे ! तब तो 'ज्ञानविनिर्मुक्त'
ऐसा नहीं बोलना चाहिये अन्यथा स्वरूपभंग का दोष होगा। कारण :- बोधरूप होने के कारण पुरुष 15 ही प्रत्यक्षादि प्रमाणमय है। 'हम भी ऐसा मानते ही हैं' ऐसा कहेंगे तो फिर प्रत्यक्ष की व्याख्या में
'बुद्धिजन्म प्रत्यक्ष' ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि अब तो नित्य आत्मा ही बुद्धिस्वरूप है उस का जन्म कैसे ? निष्कर्ष - १, प्रमाणपंचकाभाव अथवा २, ज्ञानविनिर्मुक्त आत्मा स्वरूप अभाव प्रमाणभूत नहीं है। तथा ३, तदन्यज्ञानस्वरूप अभाव प्रत्यक्षरूप ही है। इस लिये अभाव स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है।
[ मीमांसकप्रथित अभावचतुर्विधता का निरसन ] 20 तथा मीमांसकने जो अभाव के प्रागभावादि चार प्रकारों का, तथा उस के वास्तवस्वरूप का
प्रतिपादन किया है (३९९-१९) वह संगत नहीं है। कारण :- सभी भाव अपने अपने स्वभाव से अवस्थित होते हैं, पर भाव से अपने को मिलाते नहीं है। अन्यथा दूसरे में मिलने से वह अपने स्वरूप को खो कर परभाव को प्राप्त कर बैठेगा। हरकोई चीज स्वतः दूसरे से व्यावृत्तस्वरूपवाली
होती है, उस में कोई स्वभिन्न अभावांश होना सम्भव नहीं है। यदि उस में अभावांश भी मानेंगे 25 तो वह भी पररूप है, भाव को तो उस से भी व्यावृत्त रहना पडेगा, उस के लिये अन्य अभावांश
की कल्पना करनी होगी... इस प्रकार सीलसीला चलेगा तो अनवस्था प्रसक्त होगी। फलतः किसी से भी भाव की व्यावृत्ति स्थायि नहीं बनेगी, व्यावृत्ति के न घट पाने से जगत् में से व्यावृत्ति (= भेद) का उच्छेद होने पर सारा जगत् एक द्रव्यमय बन कर रह जायेगा। फिर एक द्रव्यमय पूरे
जगत् का उत्पत्ति-नाश भी एक साथ ही प्रसक्त होगा। तथा एकद्रव्यमय विश्व में किसी भी परभाव 30 के न रहने से, परभाव के अभाव से व्यावृत्ति अनुभव करता हुआ भाव परभाव से व्यावृत्ति न
करने से पुनः परभावरूपता की अनिष्टप्राप्ति होगी। पहले यह दोष कहा जा चुका है।
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