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________________ १६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ असदेतद्- यतः 'निराकारं ज्ञानमर्थव्यवस्थापकम्' इति किं प्रत्यक्षतोऽवगम्यते आहोस्विदनुमानत उतार्थापत्तेरिति विकल्पाः । तत्र न तावत् प्रत्यक्षतस्तत्प्रतिपत्तिः, प्रतिभासमानशरीरस्तम्भादिव्यतिरिक्तस्यापरस्य ज्ञानस्यानुपलम्भेनाऽसत्त्वात् । न च सुखाद्यान्तररूपेण अहंकारास्पदतया स्वसंवेदनाध्यक्षतो ज्ञानरूपं प्रतीयत एवेति कथं तस्यानुपलम्भः ? यतः सुखादयो नान्त:स्पष्टव्यशरीरव्यतिरिच्यमानतनवः प्रतिभान्ति, 'अहम्' 5 इति प्रत्ययोऽपि तथाभूतशरीरालम्बनतया संवेद्यत इति । न च तद्व्यतिरिक्तो बोधात्मा स्वप्नेप्यनुभवविषयः, इति न प्रत्यक्षतो ग्राह्यव्यतिरिक्तवपुर्णाहकस्वरूपमवभातीति न तत् प्रत्यक्षावसेयम् । नाप्यनुमानाधिगम्यम् प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्य तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेः। नाप्यर्थापत्तिस्तत्सद्भावमवगमयति तस्याः प्रामाण्यानुपपत्तेः। किं च, अनुस्मरणमात्रमापत्तिः, न च 'इदं तत्' इत्युल्लेखवदनुस्मरणमदृष्टेऽर्थे प्रवृत्तिमासादयति। न साधन दिखता है तो वह है प्रतिभास का निश्चय। निष्कर्ष यह है कि निराकार बोध से ही बाह्य 10 अर्थ की सिद्धि स्वीकारार्ह है, न कि विज्ञप्तिमात्र। * निराकारज्ञान से अर्थव्यवस्था अशक्य- विज्ञानवादी * निराकारवादी का यह कथन गलत है। कारण, तीन विकल्प (अभी कहेंगे वे) संगत नहीं होते। 'निराकार ज्ञान अर्थ की प्रतिष्ठा करता है' ऐसा ब्रह्मज्ञान आप को प्रत्यक्ष से, अनुमान से या अर्थापत्ति से हुआ है ? (१) प्रत्यक्ष से वैसा ज्ञान हो नहीं सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष में देह-गेह-स्तम्भादि का 15 प्रतिभास तो होता है किन्तु उन के प्रतिष्ठापकरूप में स्तम्भादि से अलग किसी स्वतन्त्र ज्ञान का प्रतिभास नहीं होता, अतः वह असत् है। प्रश्न :- जिस का 'अहं' ऐसा उल्लेख होता है एवं अनुकूल (सुख) या प्रतिकुल (दुःख) रूप से जिस का आन्तरिक संवेदन होता है वही ज्ञान है जो अपने अपरोक्षसंवेदन से ही सिद्ध है - तब आप उस का निषेध क्यों करते हैं ? 20 उत्तर :- ठंडा पानी पीने पर भीतर में शीतल स्पर्श का संवेदन होता है, वह शीतलस्पर्श पानी एवं शरीर का ही गुणधर्म है - उस से अतिरिक्त नहीं है, ठीक इसी तरह वह सुख-दुःखसंवेदन भी जलस्पर्श की तरह भीतर में संविदित जरूर होते हैं किन्तु उन का अस्तित्व शरीर से पृथक् नहीं है। ‘अहम्' ऐसा संवेदन भी भीतरी शरीर को ही विषय करनेवाला है, शरीर से भिन्न किसी तत्त्व को विषय नहीं करता। तात्पर्य, शरीर-स्तम्भादि से पृथक् कोई ‘बोध' जैसा पदार्थ तो स्वप्न में भी 25 अनुभूत नहीं होता। निष्कर्ष, ग्राह्य स्तम्भ-शरीरादि से सर्वथा भिन्न मूर्ति जैसा कोई ग्राहक (बोध) स्वरूप प्रत्यक्ष में भासित नहीं होता। (२) वैसा बोध अनुमान से भी सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि जिस अर्थ का कभी भी प्रत्यक्ष में भान नहीं हुआ उस अर्थ का भान अनुमान से नहीं हो सकता, क्योंकि अनुमान की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष की पृष्ठभूमि पर ही हो सकती है। (३) अर्थापत्ति से भी शरीरस्तम्भादिभिन्न बोध का उपलम्भ अशक्य है, क्योंकि अापत्ति कोई प्रमाण नहीं है। दूसरी बात यह है कि अर्थापत्ति 30 तो अन्यथा अनुपपन्न पूर्वदृष्ट अर्थ की स्मृति है। प्रस्तुत में स्तम्भादि से पृथक् बोध सर्वथा प्रत्यक्षादि से अदृष्ट ही है तब यहाँ 'यह तो वह है' (देवदत्त रात्रीभोजी है उस की तरह 'यह संवेदन हैं') ऐसा उल्लेखवाला अनुस्मरण होने की बात ही कहाँ ?! कभी भी किसीने संवेदन का स्वतन्त्र अनुभव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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