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खण्ड-४, गाथा-१ निराकारस्याप्यर्थव्यवस्थापकत्वं बोधस्येति ‘विज्ञप्तिमात्रमेव नार्थव्यवस्था' [ ] इति विज्ञानवादिनः।
अयुक्तमेतत्- सप्रतिघरूपतयाऽध्यक्षतो बाह्यस्य सिद्धेर्विज्ञप्तिमात्रत्वे तद्रूपताऽभावप्रसक्तिर्भवेत्। न चाध्यक्षतः सप्रतिघबाह्यरूपतया प्रतीयमानस्य ‘विज्ञप्तिः' इति नामकरणे काचिन्नः क्षतिः। नामकरणमात्रेण सप्रतिघत्व-बाह्यरूपत्वादेरर्थधर्मस्याऽव्यावृत्तेः। अतः सप्रतिघत्वादिरूपो बाह्योऽर्थः तद्विपरीतश्चान्तरो बोधोऽभ्युपगन्तव्यः- इति कथं विज्ञप्तिमात्रम् ?! न च सप्रतिघाकारतया बोधप्रतिपत्तिः। तद्विषयतया 5 तु तस्य प्रतिपत्तिरस्त्येव 'नीलविषयो बोधो मयाऽनुभूयते' इति निश्चयोत्पत्तेः । न च प्रतिभासनिश्चयमन्तरेणापरं पदार्थस्वरूपव्यवस्थितौ निबन्धनमुत्पश्यामः। ततो निराकारादेव बोधाद् बाह्यार्थसिद्धिरभ्युपेया। में कर्म-कर्तृभाव ही असिद्ध है। व्याकरणशास्त्र में कर्म(कारक) के तीन भेद दिखाये हैं। १ - निर्वर्त्यजैसे 'पुत्र को जन्म देती है' यहाँ जन्म के पहले पुत्र नहीं था - असत् था - उस को उत्पन्न किया वह निर्वर्त्य कर्म हुआ। २ विकार्य (कर्म) जैसे 'लकडी को जलाते हैं' - यहाँ लकडी विद्यमान है 10 - उस का भस्मात्मक विकार निष्पन्न किया जाता है - यहाँ लकडी विकार्य कर्म है। ३ - प्राप्य कर्म जैसे 'सूर्य को देखता है' यहाँ दर्शन क्रिया का कोई भी उल्लेखाई प्रभाव सूर्य के ऊपर नहीं होता - वह प्राप्य कर्म है। नील और बोध समानकालीन होने से, इनमें से एक भी कर्मता का प्रकार नील (या बोध) में घट नहीं सकता क्योंकि न तो बोध नील का उत्पादक है, न विकार्य है। प्राप्य भी नहीं है क्योंकि प्राप्यरूपता भी वास्तव में तज्जन्यत्व आदि से पृथक् स्वरूप यहाँ सम्भव नहीं 15 है, क्यों कि समान कालीन दोनों ही पदार्थ (नील एवं बोध) एक-दूसरे के ग्राह्य अथवा ग्राहक होने में कोई नियामक विशेष नहीं है।
विज्ञानवादी कहता है कि - उपर्युक्त प्रकार से निराकार बोध से अर्थ की व्यवस्था शक्य ही नहीं है। इस से यही निष्कर्ष होगा कि बाह्य कोई अर्थ है ही नहीं (- क्योंकि उस का कोई व्यवस्थापक -- साधक ही नहीं है।) जो कुछ है वह सिर्फ एकमात्र विज्ञानरूप ही है।
* विज्ञानवादीमत का निराकरण, अर्थ प्रत्यक्ष से सिद्ध * विज्ञप्तिमात्रवस्तुवादी का यह कथन गलत है - क्योंकि विज्ञप्ति से भिन्न बाह्य पदार्थ सप्रतिघ (= ज्ञानमयता से विरुद्ध) जडात्मभाव से सभी को प्रत्यक्षानुभवसिद्ध है। सिर्फ विज्ञप्ति को ही पदार्थ माना जाय तो बाह्य पदार्थ की जडरूपता शून्य हो जाने की विपदा प्राप्त होगी। यदि प्रत्यक्षानुभवसिद्ध जड एवं बाह्यरूप से प्रतीत होने वाले जड पदार्थ का 'विज्ञप्ति' ऐसा नूतन नामकरणविधि करने 25 का आप को शौख है - तो इस में हमें कोई आपत्ति नहीं है। 'विज्ञप्ति' ऐसा नाम करने पर भी बाह्यार्थ के जडत्व-बाह्यत्व आदि धर्मों की निवृत्ति नहीं की जा सकती। चैतन्य धर्मवाले आंतर बोध को जब आप स्वीकारते हैं तो उस से विपरीत जड एवं बाह्य अर्थ भी स्वीकारना पडेगा - तब एक मात्र विज्ञप्ति का ही स्वीकार कैसे किया जाय ?! बोध अनभव चैतन्यमय होता है न कि जडत्वाकार | हाँ, चैतन्यमय बोध जडविषय (बाह्यार्थविषयक) हो सकता है - जैसे कि 'मुझे नीलविषयक बोध का 30 अनुभव होता है' - ऐसा निश्चय सभी को उत्पन्न होता है। वस्तुस्वरूप की प्रतिष्ठा का एकमात्र •. देखिये सिद्धहेमशब्दानुशासन सूत्र २-१-३ बृहद्वृत्ति ।
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