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________________ १४ सन्मतितर्कप्रकरण- काण्ड - २ बोधो निर्व्यापारोऽपि बोधस्वरूपत्वादर्थग्राहकः, अर्थस्याप्यर्थरूपतया बोधं प्रति ग्राहकतोपपत्तेः, ततो ग्राह्यरूपाऽसंस्पर्शान्न बोधस्य ग्राहकता । न च ग्राह्यार्थरूपान्यथानुपपत्त्या बोधस्य ग्राहकताव्यवस्था, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तथाहि - ग्राह्यरूपव्यवस्था ग्राहकरूपसंस्पर्शाद् ग्राहकरूपव्यवस्थापि ग्राह्यरूपसंस्पर्शादिति कथं नेतरेतराश्रयदोष: ? न च समानकालयोनल-बोधयोर्ग्राह्य-ग्राहकभावव्यवस्था, कर्मकर्तृरूपत्वाऽसिद्धेः न हि समानकालतायां निर्वर्त्य विकार्य-प्राप्यरूपकर्मतासंभवः । समानकालस्य निर्वर्त्य विकार्यताऽयोगात् प्राप्यरूपता च न तद्व्यतिरिक्ता सम्भवति समानकालयोर्द्वयोरपि ग्राह्य-ग्राहकभावाऽविशेषात् । तन्न के द्वारा अर्थग्रहण में भी बीच में नये नये व्यापार की कल्पना करने पर अनवस्था प्रसक्त होगी । व्यापार अगर विना अन्य व्यापार ही अर्थग्रहण करेगा तो निराकार ज्ञान भी व्यापार के विना ही 5 अर्थ-ग्रहण कर लेगा । यदि ज्ञान व्यापार के द्वारा अर्थग्रहण करेगा तो इस प्रक्रिया में व्यापार को 10 भी अर्थग्रहण कराने के लिये कुछ सक्रिय होना पडेगा, उस के लिये एक और व्यापार ( व्यापार का व्यापार) मानने जायेंगे तो उस के भी लिये और एक व्यापार... इस प्रकार अनवस्था दुर्निवार है । दूसरी बात यह है कि अगर व्यापार के विना ही व्यापार अर्थग्रहण कराने में प्रवृत्त होगा तो व्यापार के विना अर्थ भी ज्ञान ग्रहण के लिये क्यों प्रवृत्त नहीं होगा ? व्यापार को जब व्यापार की जरूर नहीं तो व्यापार की तरह अर्थ को भी ज्ञान ग्रहण के लिये अन्य किसी व्यापार की 15 जरूर नहीं है। अतः अर्थ में भी ज्ञानग्राहकता प्रसक्त होगी । यदि ऐसा कहा जाय - 'व्यापार के विना भी बोधात्मकता के कारण निराकार ज्ञान अर्थग्राहक होगा, अर्थ ज्ञानग्राहक नहीं होगा क्योंकि वह बोधात्मक नहीं है' तो इस के विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि व्यापार के विना भी अर्थात्मकता के जरिये अर्थ ज्ञानग्राहक होगा, बोध अर्थग्राहक नहीं होगा क्योंकि वह अर्थात्मक नहीं है । वास्तव में तो इतना ही मानना ठीक है कि अर्थ जैसे 20 बोधस्वरूप अस्पर्शी होने से ज्ञानग्राहक नहीं होता वैसे ही निराकार ज्ञान भी ग्राह्यार्थस्वरूपस्पर्शी न होने से वह बाह्यार्थग्राहक नहीं है । ( तात्पर्य विज्ञानवादी का यह है कि बाह्यार्थ ही सिद्ध नहीं होगा ।) यदि ऐसा कहेंगे कि 'निराकार बोध में अर्थग्राहकता की व्यवस्था करनी ही पडेगी नहीं करेंगे तो अर्थ में ग्राह्यरूपता का ही भंग हो जायेगा। जब कोई ग्राहक नहीं है तब वह ग्राह्य ही कैसे ?” तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष पीछा पकडेगा । देखिये ग्राह्यस्वरूप की उपपत्ति के लिये 25 ज्ञान में ग्राहकस्वरूप का स्वीकार करना होगा और ज्ञान में ग्राहकस्वरूप की उपपत्ति के लिये अर्थ में ग्राह्यस्वरूप को मानना पडेगा । इस तरह जब दोनों ही एक-दूसरे के मुँह देखते रहेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष क्यों नहीं होगा ? अगर * नीलादि अर्थ में तीन प्रकार के कर्मत्व की अनुपपत्ति ** जैसे समानकालीन दायें-बायें दो गो-शृंग में एक शृंग अन्य शृंग का ग्राहक और दूसरा उस 30 का ग्राह्य ऐसा ग्राह्य ग्राहक भाव नहीं होता वैसे ही समानकालीन नील एवं बोध में भी ग्राह्य-ग्राहक - Jain Educationa International - भाव नहीं घट सकता । (याद रखिये- पहले निराकारवादि ने अर्थसहभावी एकसामग्री - अधीन निराकार बोध को प्रमाण दर्शाया है । ) ग्राह्य-ग्राहकभाव तो कर्म-कर्तृभाव पर निर्भर है। यहाँ नील एवं बोध For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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