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________________ ४१० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रतिपन्नमर्थापत्तेराश्रयः तदाऽनुमानेऽन्तर्भावः, अथ न सिद्धं तदा नापत्तिप्रवृत्तिः अतिप्रसङ्गाद् इत्युक्तम् । अथार्थापत्तिरेव प्रकल्प्यानन्यथाभवनं दृष्टस्य श्रुतस्य वार्थस्य प्रकल्पयति तींतरेतराश्रयत्वम्- अनन्यथाभवनसिद्धौ तस्यार्थापत्तिप्रवृत्तिः तत्प्रवृत्तेश्च तस्यानन्यथाभवनप्रसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । ततस्तादात्म्य-तदुत्पत्तिप्रतिबन्धलक्षणानन्यथाभवननिश्चयमन्तरेणान्यतरः सम्बन्धी अन्यतोऽर्थादर्थापत्त्या 5 प्रकल्पयितुं न शक्यत इत्यन्वय-व्यतिरेकसिद्धिः । पक्षधर्मता त्वर्थापत्तिसमाश्रयोऽर्थो यत्र धर्मिणि प्रमाणतो निश्चीयते तत्रैव स्वप्रकल्प्यं प्रकल्पयतीति न दुरुपपादा, कारण-व्यापकयोरेव प्रतिबन्धात् तयोश्चान्यत्र सद्भावे कार्य-व्याप्ययोरपरत्राऽसम्भवात् । एवमर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात् तल्लक्षणमनुमानलक्षणात् पृथगयुक्तम् । प्रत्यक्षपूर्विका त्वर्थापत्तिर्योदाहता सा प्रमाणमेव न भवति स्मृतिरूपत्वात्। न हि पावकादन्यैव दाहकशक्तिर्याऽर्थापत्तिसाध्या स्यात्। वह्निस्वरूपमेव दाहादिककार्यनिवर्तनसमर्थं शक्तिव्यपदेशमासादयति 10 अध्यक्षेण च तत्स्वरूपं प्रतियता तदव्यतिरिक्ता शक्तिरपि प्रतिपन्नैव। न हि कारणभावादन्या भावानां से सिद्ध नहीं है तो अर्थापत्ति का उत्थान ही नहीं होगा, अन्यथा अतिप्रसंग होगा यह बात पहले कही जा चुकी है। यदि कहें – 'अर्थापत्ति स्वयं ही दृष्ट/श्रुत अर्थ का प्रकल्प्य अर्थ के प्रति अनन्यथाभाव निश्चित कर लेती है।' – तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोषप्रवेश होगा। अनन्यथाभाव सिद्ध होने पर उस अर्थ में 15 अर्थापत्ति प्रवृत्त होगी, अर्थापत्ति प्रवृत्त होने पर उस अर्थ का अनन्यथाभाव प्रसिद्ध होगा - इस तरह अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है। [ अनुमानलक्षण से अर्थापत्तिलक्षण अपृथग् ] निष्कर्ष :- तादात्म्य-तदुत्पत्ति अन्यतररूप प्रतिबन्ध है। ऐसा प्रतिबन्ध ही अनन्यथाभाव है। उस के अनिश्चित रहने पर दो में से एक सम्बन्धि की, अन्यसम्बन्धि प्रयोजित अर्थापत्ति से, कल्पना करनी 20 अशक्य है, अत एव यहाँ (अर्थापत्ति में) अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध होते हैं। पक्षधर्मता भी दुरुह नहीं है - अर्थापत्तिआश्रय (प्रयोजक) भूत अर्थ जिस धर्मी में प्रमाण द्वारा निश्चित होगा उसी में अर्थापत्ति के द्वारा अनन्यथाभूत अर्थ की कल्पना कराता है। स्पष्ट है कि प्रतिबन्ध सिर्फ कारण का (कार्य के साथ) एवं व्यापक का (व्याप्य के साथ) ही होता है, कारण अथवा व्यापक कहीं एक स्थल में होंगे और कार्य अथवा व्याप्य अन्य स्थल में, ऐसा कहीं संभव नहीं है। सारांश, अर्थापत्ति का अन्तर्भाव 25 अनुमान में हो जाता है तब अर्थापत्ति का स्वतन्त्र लक्षण घडना अनुचित है। [ प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति का विषय शक्ति क्या है ? ] प्रत्यक्ष अर्थापत्ति का उदाहरण तो प्रमाणभत ही नहीं है क्योंकि वह स्मतिरूप है। दाहकताशक्ति कोई अग्नि से भिन्न नहीं है जिससे कि उस को अर्थापत्ति से सिद्ध करना पडे। दाहादिकार्यघटनसमर्थ अग्नि का स्वरूप ही 'शक्ति' संज्ञा से पुकारा जाता है। जो अग्नि के इस स्वरूप को प्रत्यक्ष पीछानता 30 है तब उस से अभिन्न शक्ति को भी पीछान लेता है। भावों में अन्तर्गत शक्ति क्या है ? भाव निष्ठ (दाहादि की) कारणता, यही शक्ति है। शक्ति कोई कारणता से अतिरिक्त वस्तु नहीं है, कारणता भी कार्यनियतपूर्ववृत्तितारूप ही है। शक्ति का अन्वय-व्यतिरेक यानी भावाभाव भी प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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