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खण्ड - ४, गाथा - १
[ बौद्धकृता अर्थापत्तिलक्षणसमालोचना ]
अर्थापत्तेस्तु षट्प्रकारायाः 'प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धोऽर्थो येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य प्रकल्पनमर्थापत्तिः' (३९५-८) इति लक्षणं नोपपत्तिमत् । यतोऽग्नेर्दाहकत्वेन विनाऽग्नित्वं नोपपद्यत इति तदा दाहकत्वं परिकल्प्यते यदि तयोः कश्चित् सम्बन्धो भवेत् । असति च तत्र सत्यप्यग्नी दाहकत्वस्याभावः असत्यपि च भाव इति कथं दाहकत्वमन्तरेण वनेरभावसिद्धि: ? इति दाहकत्ववददाहकत्वमपि कल्पनीयं 5 स्यात् । अतः सम्बन्धे निश्चिते सति एकमविनाभूतं सम्बन्धिनमुपलभ्य द्वितीयस्य सम्बन्धिनः प्रकल्पना युक्तिमती । एवं च प्रकल्पने अनुमानत्वमेव सम्बन्धनिश्चयपूर्वकत्वाद् एकस्माद् द्वितीयपरिकल्पनस्य, कृतकत्वदर्शनपूर्वकाऽनित्यत्वानुमानवत् । सम्बन्धश्चार्थापत्तिप्रवृत्तेः प्रागेव तयोः प्रतिपत्तव्यः, एवं ह्यर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्याऽनन्यथाभावोऽर्थापत्तेराश्रयः सिद्धो भवेत् । अथ प्रकल्प्यमानार्थानन्यथाभवनमर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य तदैव सिद्धम् - इत्यनुमानादर्थापत्तेर्भेदः । ननु यदि तस्यानन्यथाभवनं प्रमाणान्तरात् 10 नहीं है, फिर उस का अनुमानप्रमाण में से बहिर्भाव करने में कोई दोष नहीं है। अतिविस्तार से अलम् ।
[ सम्बन्धमूलक अर्थापत्ति अनुमान ही है - बौद्ध ]
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षड्विध अर्थापत्ति का जो लक्षण कहा है जिस अर्थ के विना प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्ध अर्थ अनुपपन्न रहता है उस अर्थ की कल्पना अर्थापत्ति है ३९५ - १७ ) यह लक्षण संगत नहीं है। कारण स्पष्टता 15 :- दाहकत्व के विना ( अग्नि में) अग्नित्व उपपन्न नहीं होता ऐसा कह कर अग्नि में दाहकत्व की कल्पना तब की जा सकती है यदि अग्नित्व और दाहकत्व के मध्य कोई सम्बन्ध हो। ऐसा सम्बन्ध, जिस के न रहने पर, अग्नि के होते हुए भी उस में दाहकता नहीं रहे। तथा ( उस सम्बन्ध के रहते हुए) अग्नि के न रहते हुए भी दाहकता रहे। जब तक ऐसा कोई सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं, कैसे कह सकते हैं कि दाहकत्व के विना अग्नि के विरह की सिद्धि होगी ? फिर भी यदि दाहकत्व 20 के विना अग्नि की अनुपपत्ति दिखायेंगे तो अन्य कोई अदाहकत्व के विना अग्नि की अनुपपत्ति दिखा कर अग्नि में अदाहकत्व की कल्पना करेगा। फलितार्थ यह हुआ कि सम्बन्ध का निर्णय होने पर ही एक अविनाभूत सम्बन्धि की उपलब्धि के द्वारा दूसरे सम्बन्धि की कल्पना संगत हो सकती है। यदि उक्त ढंग से सम्बन्ध के द्वारा एकसम्बन्धि ( हेतु ) के प्रयोग से जो अन्य अर्थ की ( साध्य की) कल्पना करेंगे तो यह अनुमान ही हुआ। एक से द्वितीय (अर्थ) की कल्पना जहाँ सम्बन्ध निश्चयपूर्वक 25 की जाती है वह अनुमान होता है जैसे कृतकत्व - अनित्यत्व के सम्बन्ध का निर्णय होने पर, कृतकत्व के दर्शन से अनित्यत्व का अनुमान हो जाता है। आप के मत में अर्थापत्ति प्रवृत्ति के पूर्व सम्बन्ध तो ज्ञात करना ही होगा, तभी अर्थापत्तिउत्थापक अर्थ का अनन्यथाभाव अर्थापत्ति का आश्रय बनेगा । यदि कहें 'अर्थापत्तिउत्थापक अर्थ का प्रकल्प्यमान अर्थ के साथ अनन्यथाभाव अनुमान में भले पूर्व सिद्ध रहे, अर्थापत्ति में तो उसी वक्त सिद्ध होता है, यही तो अनुमान - अर्थापत्ति का भेद है' तो 30 यहाँ दोनों ओर आपत्ति है यदि अर्थापत्तिउत्थापक अर्थ का अनन्यथाभाव अन्य प्रमाण से वहाँ सिद्ध हो कर अर्थापत्ति का आश्रय बनेगा तो यहाँ अनुमान में ही अन्तर्भाव होगा । यदि अन्य प्रमाण
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