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________________ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ ४०८ दर्शनम् । न हि यत्राध्यक्षमप्रवृत्तिमत् तत्र शब्दस्मरणसहितमपि प्रवर्त्तते यथा चक्षुर्ज्ञानं गन्धस्मरणसहायं परिमलप्रतिपत्तौ। अतिदेशवाक्याच्च सम्बन्धाऽप्रतिपत्तावपरस्य तत्प्रतिपत्तिनिमित्तस्याभावात् 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति पूर्वानुभूतपरामर्शेन प्रतिपत्तिर्न स्यात् अपि तु 'अयं गोसदृशः' इत्येवं भवेत् । न चैतत्प्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्यैव प्रमाणान्तरमुपमाख्यमेतत्प्रतिपत्तिजनकं प्रकल्पनीयम् 'यः कुण्डली स राजा' इति 5 श्रुतातिदेशवाक्यस्य तद्दर्शनानन्तरम् 'अयं स राजशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तेरप्युपमानफलत्वप्रसक्तेः । अथात्र तच्छब्दवाच्यता अतिदेशवाक्यादेव प्रतिपन्नेति नातिप्रसक्तिस्तर्हि 'गौरिव गवयः' इत्यतिदेशवाक्याद् गोसदृशस्यार्थस्य गवयशब्दवाच्यतापि प्रतिपन्नेति नोपमानप्रमाणफलता, 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तेः । तस्मात् स्मृतिरूपत्वादस्याः प्रतिपत्तेर्नेतस्या जनकस्य प्रमाणतेति अनुमानान्तर्भावप्रतिपादनं न दोषाय । इत्यलमतिविस्तरेण । नष्ट हो गये, उस पुरुष के प्रति गवय का दर्शन रहने पर भी 'यह वो गवयशब्दवाच्य' ऐसा भान 10 नहीं होता, उस का दूसरा कारण यह भी है कि विशेष में शब्दवाच्यता प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानी जाती । यदि अतिदेशवाक्यस्मरणरूप सहकारी के काल में गवय का दर्शन उक्त प्रतीति का जनक माना जाय तो उस का मतलब वास्तव में तो यही हुआ कि स्मृतिगत अतिदेशवाक्य ही उक्त प्रतीति का जनक है न कि दर्शन । जिस विषय में प्रत्यक्ष का प्रचार नहीं होता उस विषय में शब्दस्मरण रूप 15 सहकारी के योग में भी प्रत्यक्ष का प्रचार शक्य नहीं होता । उदा० चक्षुःप्रत्यक्ष सुगन्धि परिमल को ग्रहण नहीं करता, तो गन्धस्मृतिरूप सहकारी के योग में भी वह परिमल का ग्रहण नहीं कर सकता । यदि सम्बन्ध का भान अतिदेशवाक्य से नहीं होगा तो उस के लिए और किसी निमित्त के न होने से 'यह वो गवयशब्दवाच्य है' ऐसी पूर्वानुभूतअर्थपरामर्शक प्रतीति न हो कर, सिर्फ 'यह गोसदृश है' इतनी ही प्रतीति उत्पन्न होगी । 20 25 बौद्ध निष्कर्ष ] [ गवयशब्दवाच्यता स्मृतिरूप है शंका :- ‘यह गोसदृश है' इस प्रतीति के बदले हमें चाहिये 'यह वो गवयशब्द वाच्य है' ऐसी प्रतीति । यह प्रतीति आप के कथनानुसार केवल प्रत्यक्ष या शब्दस्मरणसहित प्रत्यक्ष से नहीं हो सकती । इसी लिये तो हम कहते हैं कि 'यह वो गवयशब्दवाच्य है' इस ढंग से प्रतीति करने के लिये उपमान प्रमाण खडा करना ही पडेगा । - उत्तर :- यदि यह वो गवयशब्दवाच्य है' इस प्रतीति के लिये नये उपमान प्रमाण की कल्पना करेंगे तो 'जो कुण्डलयुक्त है वह राजा है' ऐसे अतिदेशवाक्य को सुननेवाले पुरुष को कुण्डली राजा के दर्शन के बाद 'यह वो राजशब्दवाच्य है' ऐसा भी उपमानप्रमाणफलात्मक भान मानना पडेगा । ( मानते नहीं है ।) यदि कहें कि 'यहाँ राजशब्दवाच्यता का ज्ञान अतिदेशवाक्य श्रवण से ही हो चुका है अतः पुनः उस का ज्ञान गृहीतग्राहि होने से प्रमाणान्तर नहीं है' तो 'गो जैसा गवय' 30 इस अतिदेशवाक्य से गोसदृश अर्थ में (= गवय में) गवयशब्दवाच्यता का ग्रहण भी हो चुका है, फिर नये प्रमाणान्तर की कल्पना क्यों ? सारांश, 'यह वो गवयशब्दवाच्य है' इस प्रतीति में उपमानप्रमाणफलता नहीं है । उस प्रतीति में तो स्मृतिरूपता है अत एव उस के उत्पादक में प्रमाणत्व Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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