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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ ४११ शक्तिः । स च कार्यात् प्राग्भाव एव । अन्वय-व्यतिरेकौ च प्रत्यक्षानुपलम्भगम्यौ । तौ च विशिष्टमेव प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षावगतत्वाच्छक्तेर्नार्थापत्तिविषयता । न च शक्तिः शक्तादन्यैव 'अस्येयं शक्तिः' इति सम्बन्धाभावप्रसक्तेः, उपकारकल्पनायामनवस्थादिदोषात् व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तशक्तिप्रकल्पनायामपि विरोधादिदूषणं प्रतिपादितमेव । तन्न प्रत्यक्षपूर्विकाया अर्थापत्तेरुदाहरणं युक्तम् । अत एव – 'चतसृभिरर्थापत्तिभिः प्रत्यक्षादिप्रसिद्धस्यार्थस्य शक्तिः साध्यते' - ( ३९६-५) इत्ययुक्तमुक्तम् । 5 वह्नि-रूपादिदर्शनाद् दाहकशक्तियुक्तवस्तुसाधनेऽभ्युपगम्यमाने चार्थापत्तिरनुमानमेव भवेत् । विशिष्टरूपाद् विशिष्टस्पर्शानुमानाद् देशान्तरप्राप्त्या सवितुर्गन्तुरनुमानादनुमानपूर्विकाऽर्थापत्तिरनुमानमेव भवेत् । अर्थापत्तिपूर्विका चार्थापत्तिरनुमितानुमानम् अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात् । यत्तूदाहरणम् ( ३९६-२) 'शब्दस्यार्थेन सम्बन्धसिद्धेरर्थान्नित्यत्वसिद्धि:' इति, तदयुक्तम्; पौरुषेयाणामपि हस्तसंज्ञादीनां सङ्केतसम्बन्धादर्थप्रतिपादनसामर्थ्योपलब्धेः । नित्यस्य क्रम- यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् कस्यचिद् भावस्याऽसम्भवात् कथमर्थापत्त्या 10 सम्बन्धस्य नित्यत्वं साध्येत ? चक्षुरादिज्ञानान्यथानुपपत्त्या लोचनादिप्रतीतिस्त्वनुमानम् । तथाहि के गोचर हैं, प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ दोनों ही एक प्रकार के विशिष्ट प्रत्यक्षरूप ही है, इस विशिष्ट प्रत्यक्ष से शक्तिरूप कारणता का ग्रहण हो सकता है फिर क्यों उसे अर्थापत्ति का विषय माना जाय ? शक्त (वस्तु) से शक्ति कोई भिन्न नहीं होती । यदि भिन्न होती तो 'इस की यह शक्ति' इस प्रकार जो षष्ठीबोध्य अभेद का मेल बैठता है वह नहीं बैठता । भेद मान कर यदि सम्बन्ध के द्वारा शक्ति का 15 भाव के ऊपर कोई उपकार होना माना जाय तो उपकार का भी उपकार... इस तरह अनवस्था दोष लगेगा। तथा स्वतन्त्र शक्तिवाद में शक्ति भाव से पृथक् या अपृथक् होने की कल्पना में विरोधादि बहुत दूषण हैं यह पहले कहा जा चुका है । निगमन :- प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्ति का उदाहरण असंगत है। [ प्रत्यक्षादिपूर्वक अर्थापत्ति अनुमानरूप तथा शब्दनित्यत्वनिषेध ] यही कारण है कि 'प्रथम चार अर्थापत्तियों से प्रत्यक्षादिसिद्ध अर्थ की शक्ति सिद्ध होती है' 20 यह (३९६-१९) कथन अयुक्त है । अग्नि के रूपादि ( उष्ण स्पर्शादि) के प्रत्यक्ष से अग्नि में दाहक शक्ति की कल्पना तो नितरां अनुमान ही है अग्नि धर्मी, दाहशक्ति साध्य, उष्णस्पर्श हेतु । तथा, विशिष्टरूप से विशिष्ट स्पर्श का अनुमान, सूरज की देशान्तर प्राप्ति से गन्तृत्व का अनुमान, ये दोनों अनुमानपूर्वक ('अर्थापत्ति नहीं किन्तु ) अनुमान ही है । अर्थापत्तिपूर्वक जो अर्थापत्ति दीखायी थी वह भी अनुमित अनुमान । मतलब, प्रथम अर्थापत्ति तो अनुमान अन्तर्भूत ही है उस से अनुमित अर्थ के द्वारा 25 नयी अर्थापत्ति यानी अनुमान किया जाता है । अर्थापत्तिप्रेरित अर्थापत्ति का जो उदा० दिया है ( ३९६ - १४) 'शब्द का अर्थ के साथ सम्बन्ध सिद्ध होने पर, उस से शब्द के नित्यत्व की अर्थात् होती है' वह तो अयुक्त कथन है । अर्थ के साथ सम्बन्ध की सिद्धि शब्द के नित्यत्व पर अवलंबित नहीं है। पौरुषेय यानी अनित्य होते हुए भी हस्तसंज्ञाओं से संकेतसम्बन्ध के द्वारा अर्थप्रतिपादन का सामर्थ्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । पदार्थ को नित्य मानें तो उस के साथ क्रमिक अथवा युगपद् 30 अर्थक्रिया का विरोध होने से, नित्य भाव का कोई सम्भव ही नहीं है; तब अर्थापत्ति से भी सम्बन्ध का नित्यत्व कैसे सिद्ध होगा ? — Jain Educationa International For Personal and Private Use Only — www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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