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खण्ड - ४, गाथा - १
४०५
हेतोः। प्रवृत्तव्यवहारविषयश्च सर्व एवार्थोऽत्र दृष्टान्तोऽस्तीति नान्वय-व्यतिरेकयोरप्यभावः । ततो ‘न चैतस्यानुमानत्वम्' (३९१-७) इत्यादि पक्षधर्मत्वाद्यसंभवप्रतिपादनमसंगतम्, व्यवहारसाधने पक्षधर्मत्वादेः प्रसाधनात् ।
[ उपमानविषयनैयायिकमतसमीक्षा बौद्ध ] नैयायिकोपवर्णितमप्युपमानमनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभावात् प्रमाणं न भवति, तथाहि - 'यथा गौस्तथा 5 गवय' इतिवाक्यात् गोसदृशार्थसामान्यस्य गवयशब्दवाच्यताप्रतिपत्तेः । अन्यथा विसदृशमहिष्याद्यर्थदर्शनादपि 'अयं स गवयः' इति संज्ञा - संज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिः किं न भवेत् ? तस्माद् यथा कश्चित् 'योऽङ्गदी कुण्डली छत्री स राजा' इति कुतश्चिदुपश्रुत्य अङ्गदादिमदर्थदर्शनात् 'अयं स राजा' इति प्रतिपद्यते; न चासौ प्रतिपत्तिः प्रमाणम् उपदेशवाक्यादेवाङ्गदादिमतोऽर्थस्य 'राज' शब्दवाच्यत्वेन प्रतिपन्नत्वात् । तथेहापि 'यथा गौस्तथा गवयः' इत्यतिदेशवाक्यात् सम्बन्धमवगत्य गवयदर्शनात् संकेतानुस्मरणे सति 10 ‘अयं स गवयशब्दवाच्योऽर्थः' इति प्रतिपत्तेरप्रमाणमुपमानम् । यदि पुनरतिदेशवाक्यात् सम्बन्धप्रतिपत्तिर्नाभ्युपगम्यते पश्चादपि 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति प्रत्ययो न स्यात् । तदपरनिमित्ताभावात्, दृश्यते च तस्माद् गृहीतग्रहणान्नेदं प्रमाणम् ।
तत्तद्रूप से प्रवृत्त व्यवहारविषयता हो । अत एव यहाँ अन्वय-व्यतिरेक का अभाव नहीं है। इसलिये, श्लो० वा० (उपमान० ४३) कार ने जो पहले कहा है कि 'पक्षधर्मादि के असम्भव के कारण यह अनुमानरूप 15 नहीं है' इत्यादि ( ३९१ - २८) वह असंगत है क्योंकि व्यवहारसिद्धि के अनुमान में पक्षधर्मत्वादि सिद्ध किये जा चुके हैं।
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[ उपमानप्रमाणान्तरवादी नैयायिकमत का निरसन ]
नैयायिकों के द्वारा उपदर्शित उपमान प्रमाण की व्याख्या प्रमाणभूत नहीं है क्योंकि उस में अज्ञातार्थग्राहिता घट नहीं सकती । कैसे यह देखिये – 'जैसा गौ वैसा गवय' इस वाक्य से ही ( गवय 20 अदृष्ट होने पर भी ) गौसदृशअर्थसामान्य में गवयशब्दवाच्यत्व ज्ञात हो जाता है। यदि 'ना' बोले तो विसदृश महिषी आदि अर्थ के दर्शन से भी (महिषी आदि में) 'यह वो गवय है' ऐसा संज्ञासंज्ञि सम्बन्धभान क्यों नहीं हो जाता ? ( क्यों सदृश अर्थ दर्शन से ही होता है ? क्योंकि पहले वह गृहीत है इस लिये ।) यही कारण है कि जैसे कोई पुरुष 'छत्रवाला, अंगदवाला, कुण्डलवाला जो होता है वह राजा है' ऐसा कहीं पर सुन आया, बाद में अङ्गदादि वाले अर्थ के दर्शन से 25 'यह वो राजा है' ऐसा बोध करता है । यह बोध इसलिये अप्रमाण है, क्योंकि पूर्वश्रुत उपदेशवाक्य से ही अङ्गदादिवाले अर्थ में 'राज' शब्दवाच्यत्व की प्रतीति हो चुकी है। मतलब कि गृहीतग्राहि है ।
इसी प्रकार यहाँ 'जैसा गौ वैसा गवय' इस अतिदेशवाक्य से भी गवय के साथ गवयपदा सम्बन्ध जान कर गवय के दर्शन के बाद पूर्वगृहीत संकेतसम्बन्ध का पुनः स्मरण होने पर, 'यह वो गवयशब्दवाच्य अर्थ है' ऐसा जो भान होगा वह गृहीतग्राहि हो जाने से नैयायिक का उपमान 30 अप्रमाण है। यदि कहें पूर्वश्रुत अतिदेशवाक्य से संकेतसम्बन्ध का भान नहीं हुआ तो समझ लो कि गवयदर्शन के बाद भी 'यह वो गवयशब्द का वाच्य है' ऐसा भान नहीं होगा, कोई नया उपाय तो उपस्थित नहीं हुआ । किन्तु गवयदर्शन के बाद वह ज्ञान (स्मरण) होता तो
क्योंकि यहाँ
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