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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
अथातिदेशवाक्यात् पूर्वं गोसदृशार्थस्य गवयशब्दवाच्यता सामान्येन प्रतीता, गवयदर्शनानन्तरं तु गवयविशेषं तच्छब्दवाच्यत्वेन पूर्वमप्रतीतं प्रतिपद्यते इति न गृहीतग्राहिता। असदेतत् - संनिहितगवयविशेषविषयस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षतयोपमानत्वानुपपत्तेः । गवयदर्शनोत्तरकालभावि तु 'अयं स गवयशब्दवाच्याऽर्थः' इति यद् ज्ञानं तत् प्रत्यक्षबलोत्पन्नत्वात् स्मृतिरेव, न प्रमाणम्।
किञ्च, गवयविशेषस्य गवयशब्दवाच्यता यद्यतिदेशवाक्याद् न प्रतिपन्ना, कथं तर्हि गवयविशेषदर्शने उपजातेऽकस्मादस्य तच्छब्दवाच्यतां प्रतिपद्यते ? यस्यैवार्थस्य सम्बन्धग्रहणकाले येन सह सम्बन्धोऽनुभूतस्तस्यैवार्थस्य तेन सह सम्बन्धे तच्छब्दवाच्यता कालान्तरेऽपि दृश्यते। ततः सामान्येन संकेतकाल एव सम्बन्धः प्रतीतः, पश्चाद् गवयदर्शन उपजाते संकेतमनुस्मृत्य ‘अयं स गवयशब्दवाच्योऽर्थः'
इति प्रतिपद्यते इत्यभ्युपगन्तव्यम्।। 10 एतेन- उपयुक्तोपमानस्तु तुल्यार्थग्रहणे सति। विशिष्टविषयत्वेन सम्बन्ध प्रतिपद्यते।। ( )
इत्यपि निरस्तम्, विशेषस्य संकेतकालानुभूतस्य व्यवहारकालाननुगमादवाच्यत्वाच्च। यश्च शब्दप्रभवप्रतिपत्तावर्थः प्रतिभाति स एव शब्दवाच्यः। न च विशेषस्तत्र प्रतिभाति अक्षज्ञाने इव है (तो पहले भी वह हुआ ही होगा) इस लिये गृहीतग्राहि हो जाने से प्रमाण नहीं है।
[गवयविशेष में गवयशब्दवाच्यता की प्रतीति अगृहीत नहीं है ] यदि कहा जाय- ‘अतिदेशवाक्य के द्वारा पहले गोसदृश अर्थ में गवयशब्दवाच्यत्व गृहीत है यह कहना ठिक है, किन्तु वह सामान्यतो गृहीत है, किन्तु गवयदर्शन के पहले गवय विशेष में गवयशब्दवाच्यता गृहीत नहीं है वह गवय दर्शन बाद ही अकस्मात् गृहीत होती है। अतः यहाँ विशेषव्यक्ति में गवयशब्दवाच्यता गृहीत न होने से उस को ग्रहण करनेवाला उपमान अप्रमाण है' - तो यह
त है, संमुखवर्ती गवयविशेषविषयक विज्ञान तो प्रत्यक्ष है, उस में उपमान नहीं लगता। गवयदर्शन 20 के बाद होने वाला 'यह वो गवयशब्दवाच्य अर्थ है' ऐसा जो ज्ञान है वह प्रत्यक्षबलात् उत्पन्न होने से स्मृतिरूप है, स्मृतिज्ञान गृहीतग्राहि होने से अप्रमाण होता है।
दूसरी बात - यदि गवयविशेष में गवयशब्दवाच्यता पूर्वश्रुत अतिदेशवाक्य से ज्ञात नहीं होती. तो गवयविशेष के दर्शन के बाद अकस्मात् कैसे गवयशब्दवाच्यता का भान हो जायेगा ? वह भी
शक्य नहीं होगा। वास्तव में तो ऐसा मानना चाहिये कि जिस अर्थ के सम्बन्धग्रहणकाल में जिस 25 के साथ सम्बन्ध का अनुभव हुआ है, उसी अर्थ का उस के साथ सम्बन्ध होने पर तत्तत्शब्दवाच्यता
अन्यकाल में भी दिखती है। इस का मतलब यह हुआ कि संकेतकाल में ही सामान्यतया एवं विशेष व्यक्ति में भी सम्बन्ध का भान हो जाता है। बाद में गवय का दर्शन होने पर पूर्वगृहीत संकेत के अनुसार 'यह वो गवयशब्दवाच्य अर्थ है' ऐसी प्रतीति (स्मृति) होती है - ऐसा मानना पडेगा ।
[ व्यवहारकालीन व्यक्ति में संज्ञासंज्ञीभाव का ग्रहण अशक्य ] 30 यह जो किसी विद्वान ने कहा है – “जिस को उपमान (यानी अतिदेशवाक्य) उपयुक्त है (पूर्वश्रुत
है) वह सदृश अर्थ ग्रहण करने पर विशिष्ट (पुरोवर्त्तिअर्थ) के विषय में सम्बन्ध (संज्ञासंज्ञिभाव) ज्ञात कर लेता है।' - यह भी निरस्त हो जाता है। कारण, संकेतकाल में अनुभूतव्यक्ति और व्यवहारकाल
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