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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ सादृश्यस्य प्रतिपत्तेः । तेन 'प्रत्यक्षेऽपि यथा देशे' इत्यादि ( ३९०-१३) वचनमयुक्ततया व्यवस्थितम् । किञ्च, यदि सादृश्यज्ञानं गृहीतगाहित्वेऽपि व्यवहारमात्रप्रवर्त्तनात् प्रमाणं तर्हि वैसदृश्यज्ञानमपि सप्तमं प्रमाणं भवेत् । (तदुक्तम्- ) दृश्यात् परोक्षे सादृश्यधीः प्रमाणान्तरं यदि । वैधर्म्यमतिरप्येवं प्रमाणं किं न सप्तमम्।। ( ) तथा सोपानमालामाक्रामतः प्रथमाक्रान्तं पश्चादाक्रान्ताद्दीर्घं महद् ह्रस्वं चेत्याद्यनेकं 5 प्रमाणं प्रसक्तमिति कुतः प्रमाणषट्कवादः सङ्गतो भवेत् ? (तदुक्तम्- ) दृश्यमानव्यपेक्षं चेद् दृष्टज्ञानं प्रमान्तरम् । तत्पूर्वमस्मादित्यादि प्रमाणान्तरमिष्यताम् ।। ४०४ 20 अप्रमाण्ये चाऽस्य पक्षधर्मत्वाद्यभावप्रतिपादनं सिद्धसाधनमेव अप्रमाणस्यानुमानत्वानभ्युपगमात् । यदा च प्रत्यक्षेण प्रतियन्नपि गवाश्वादी भूयोऽवयवसामान्ययोगं तद्वियोगं वा व्यामूढः सदृशाऽसदृशव्यवहारं न प्रवर्त्तयति तदा विषयदर्शनेन विषयिणो व्यवहारस्य साधनात् त्रैरूप्यसद्भावादनुमानप्रमाणता समस्त्येव । 10 तथाहि- गवाश्वादौ विषाणाद्यवयवसामान्ययोगस्तद्वियोगो वा प्रागुपलब्ध इदानीं स्मर्यमाण इति नासिद्धता देश प्रत्यक्ष है.......' (३९१-११ श्लो० वा०वचन ) इत्यादि ये वचन व्यर्थ निश्चित होते हैं । [ वैसदृश्यज्ञान में सप्तमप्रमाणत्वापत्ति ] है और एक विपदा यह है सादृश्यज्ञान गृहीत ग्राहि होने पर भी सिर्फ व्यवहारप्रवर्त्तन के जरिये प्रमाण माना जाय, तो वैसदृश्य व्यवहारप्रवर्त्तक वैसदृश्यज्ञान को सातवाँ प्रमाण मानना पडेगा । किसी 15 विद्वान् ने कहा है 'दृश्य ( गवय) के जरिये परोक्ष ( गौ में) सादृश्यज्ञान यदि नया प्रमाण तो इसी तरह वैसदृश्यज्ञान भी सातवाँ प्रमाण क्यों नहीं ?' ।। तदुपरांत, जब सीडी चढते समय पहला सोपान चढने के बाद दूसरे का आरोहण करते हैं तब यह जो बुद्धि होती है दूसरे की अपेक्षा पहला सोपान विशाल अथवा दीर्घ अथवा छोटा तब इस महत्त्व, दीर्घत्व, हृस्वत्व का ज्ञान भी स्वतन्त्र नया प्रमाण प्रसक्त होगा, तब आप का छः प्रमाणवाद कैसे संगत होगा ? किसी विद्वान ने कहा है ' ( पुरः) दृश्यमान ( पिण्ड - गवय) सापेक्ष ( पूर्व ) दृष्ट ( गौसादृश्य) का ज्ञान यदि नया प्रमाण है, तो 'इस से यह पूर्व में है' ऐसा जो ( दृश्यमान पश्चिमवर्त्तीपिंड सापेक्ष ) पूर्व (वस्तु) का ज्ञान भी स्वतन्त्र प्रमाण मान लो ।। ( ) ' उपमान को अनुमान के रूप में अप्रमाण कहने के लिये पक्षधर्मत्वादि अभाव का निरूपण किया है उस में इष्टापत्ति है। जो अप्रमाण है उस में अनुमानत्व का हमें स्वीकार नहीं है । ' तो क्या उपमान अप्रमाण ही है ?' नहीं, जब मूढमति गौ और अश्वादि प्रत्यक्षतः बहुसामान्य अवयवयोग को देखता हुआ, अथवा बहुसामान्यावयववियोग को देखता हुआ भी सदृश या विसदृश व्यवहार प्रवर्त्तन में सक्षम नहीं है, तब विषय ( गवयादि) दर्शन से उस मूढमति के प्रति विषयि ( सादृश्यज्ञान ) का व्यवहार सिद्ध किया जाता है, तब त्रिरूपता के विद्यमान होने से अनुमानप्रमाणता मौजूद है। कैसे यह देखिये (गौ गवयसदृशव्यवहारविषय है, क्योंकि अवयवसामान्य योगी है, जैसे काक में कोकिलसदृशव्यवहार । गौ अश्वविसदृशव्यवहारविषय है 30 क्योंकि अवयवसामान्य वियोगी है, जैसे हिरन में विसदृशव्यवहार ।) गो- अश्वादि में विषाणादिअवयव सामान्ययोग अथवा उस का वियोग पूर्वदृष्ट है, अनुमान काल में स्मृतिविषय है, मतलब की है तो सही, इसलिये हेतु असिद्ध नहीं है । दृष्टान्तरूप में तो समस्त वस्तु कही जा सकती है जिस में 25 Jain Educationa International - - — - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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