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खण्ड-४, गाथा-१
४०३ सादृश्यज्ञानमुपजायेत। अतो विषाणित्वादिसादृश्यं पूर्वमेव गवि प्रत्यक्षेणावगतमिदानीं गवयदर्शनात् तत्रैव स्मर्यते। तन्न गृहीतग्रहणात् सादृश्यज्ञानं प्रमाणम् ।
अथ पूर्वप्रत्यक्षेण गोगतमेव सादृश्यमवगतम्, गवयदर्शनेन तु तद्गतमेव, उभयगतसादृश्यप्रतिपत्तिस्तु गवयदर्शनानन्तरं सादृश्यज्ञाननिबन्धनेति अगृहीतग्राहितया प्रमाणमुपमानम्। असदेतत्- पूर्वमुभयगतसादृश्याऽप्रतिपत्तौ गवयदर्शनानन्तरमप्यप्रतिपत्तेः तदनुसन्धानप्रतिपत्तेरप्यसम्भवात् । न हि गवयपिण्डदर्शनानन्तरं 5 प्रागप्रतिपन्नतत्सादृश्येऽश्वपिण्डे 'अनेन सदृशोऽश्वः' इति प्रतिपत्तिः कदाचिदपि भवति। तस्मात् प्रागध्यक्षावगतसादृश्ये प्रतियोगिग्रहणाद् व्यवहारमात्रप्रवृत्तिरेव तदा, प्राक् तदप्रवृत्तिः प्रतियोग्यपेक्षत्वात् तस्य, भ्रात्रादिव्यवहारवत् । न च तावता प्रामाण्यं युक्तम् प्रमाणानामियत्ताऽभावप्रसक्तेः। एवं च धूमदर्शनात् स्मर्यमाणाग्निसम्बन्धितयाऽध्यक्षानवगतप्रदेशे तदयोगव्यवच्छेदमवगमयन्ती प्रतिपत्तिरुपजायमानानुमितिः प्रमाणतां यथा समासादयति, न तथा सादृश्यप्रतिपत्तिः, गवाख्यधर्मिप्रतिपत्तिकाल एव भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणस्य 10 गवय उभयगत विषाणत्वादि सादृश्य पूर्व में नहीं देखा, अथवा देखने पर भी भूल गया है, तो ऐसे पुरुष को गवय का दर्शन होने पर भी, परोक्ष होने से गौआ में सादृश्य का ज्ञान नहीं ही होगा। फलित हुआ कि पहले गो गौआ में शृंगवत्त्वादि सादृश्य प्रत्यक्ष से देखा था वही अब गवय को देखने पर याद आता है। इस प्रकार गृहीतग्राही होने से सादृश्यज्ञान प्रमाण नहीं है। [पूर्वकालीन गो प्रत्यक्ष से गवयसादृश्यग्रहण की उपपत्ति ]
15 यदि कहा जाय - 'पूर्व प्रत्यक्ष के द्वारा गोनिष्ठ सादृश्य ज्ञात हुआ, गवयप्रत्यक्ष से गवयनिष्ठ सादृश्य ज्ञात हुआ; किन्तु उभय निष्ठ सादृश्य का ग्रहण तो सादृश्यज्ञानमूलक ही होगा। अतः यह उभयनिष्ठ सादृश्य जो अगृहीत है उस का ग्राहि होने से सादृश्यज्ञान उपमान प्रमाण है।' - तो यह गलत है। पहले यदि उभयगत सादृश्य गृहीत नहीं है तो गवयदर्शन के बाद भी वह अज्ञात रह जाने से, उभयानुसन्धान प्रतीति का संभव ही नहीं रहता। गवयदर्शन के बाद पूर्व में अश्व का सादृश्य 20 अगृहीत रहने पर अश्वपिण्ड में 'अश्व उस से सदृश है' ऐसा बोध कदापि नहीं होता। अतः फलित होता है कि उभयगत सादृश्य भी पूर्व प्रत्यक्ष से ही ज्ञात हो चुका है, बाद में तो उस के प्रतियोगी गवय का दर्शन होने पर 'गवय सदृश गो है' इतने व्यवहार की ही प्रवृत्ति होती है। पहले ऐसा व्यवहार न होने का कारण इतना ही है कि यह व्यवहार प्रतियोगि सापेक्ष है जैसे भाई-पुत्रादि का व्यवहार । व्यवहारप्रवृत्ति भले बाद में हो, किन्तु गृहीतग्राही होने से प्रमाण तो नहीं है। यदि 25 व्यवहारमात्र हेतु ज्ञान को अलग प्रमाण मानते जायेंगे तब तो प्रमाणों की संख्या की कोई सीमा ही नहीं रहेगी।
हमारा यह कहना है कि जैसे धूमदर्शन के बाद स्मृतिगोचर अग्नि के सम्बन्धि के रूप में प्रत्यक्ष से अज्ञात ऐसे धर्मी प्रदेश में अग्नि के अभाव का छेद उडाडनेवाली (यानी अग्नि की सत्ता उजागर करनेवाली) अनुमितिरूप प्रतीति का उदय होता है और वह प्रमाणभूत मानी जाती है, वैसा साम्य 30 सादृश्यज्ञान में प्रस्तुत में नहीं है। बहु सामान्यअवयवों के योगरूप सादृश्य की प्रतीति तो गोसंज्ञकधर्मी की प्रतीति के काल में ही पूर्वजात है। इसी लिये श्लो॰वा (उपमान० श्लो०३९) में जो कहा है 'कोई
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