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________________ ४०२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ द्यसंभवादनुमानत्वाभावप्रतिपादनं युक्तमेवेति स्थितम्। यत्र तु वक्त्रभिप्रायसूचने प्रामाण्यमस्य तत्रानुमान - लक्षणयुक्तस्यैव, नान्यादृग्भूतस्येति न प्रमाणान्तरत्वम् । उपमानस्य त्वपूर्वार्थाधिगन्तृत्वाभावात् प्रामाण्यमेव न सम्भवति। ननु अस्यापूर्वार्थविषयता प्रागुपदर्शितैव। सत्यम्, उपदर्शिता न तु युक्ता। तथाहि - तस्य विषय: सादृश्यविशिष्टो गौः तद्विशिष्टं 5 वा सादृश्यमुपदर्शितम् तच्च भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणं प्रतिपादितम् । न च सामान्यं तद्योगो वा वस्तु संभवीति प्रतिपादितम् । तत्सद्भावेऽपि प्रत्यक्षविषयतया परैस्तस्येष्टेः कथमुपमानस्य तद्गोचरत्वेनागृहीतार्थग्राहित्वं प्रामाण्यनिबन्धनं भवेत् ? सादृश्यज्ञानस्य चोत्पत्तावयं क्रमः - पूर्वं तावद् गो-गवययोर्विषाणित्वादि सादृश्यं गवि प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते, पश्चाद् गवयदर्शनानन्तरं 'यदेतद् विषाणित्वादिसादृश्यं पिण्डेऽस्मिन्नुपलभ्यते मया तद् गव्यप्युप10 लब्धम्' इति स्मरति, तदनन्तरं गवि विषाणित्वादिसादृश्यप्रतिसन्धानं जायते ‘अनेन पिण्डेन सदृशो गौः' इति। एवं च स्मार्त्तमेतद् ज्ञानं कथं प्रमाणान्तरं भवेत् ? यदि च गवि प्रत्यक्षेणोभयगतं विषाणित्वादिसादृश्यं प्राग् न प्रतिपन्नं भवेत्, प्रतिपन्नमपि यदि विस्मृतं भवेत् तदा गवयदर्शने सत्यपि परोक्षगवि नैव होता ही नहीं इस लिये। आप्त पुरुष की संभावना में कोई बाधक प्रमाण नहीं है। सारांश, पक्षधर्मत्वादि का सम्भव न होने से शाब्द में अनुमानत्व नहीं रह सकता ऐसा कथन संगत ही है - यह निश्चित है। 15 हाँ, शब्द वक्ता के अभिप्राय से जन्य (तदुत्पत्ति सम्बन्धवाले) होने से वह (शब्द) वक्ता के अभिप्राय का ज्ञान करा सकता है किन्तु यह ज्ञान अन्य किसी प्रमाणान्तररूप न हो कर अनुमानरूप ही हो सकता है, क्योंकि यहाँ तदुत्पत्ति सम्बन्ध होने से कार्यलिंगक अनुमान सावकाश है। [ उपमान अपूर्वार्थबोधक न होने से अप्रमाण - बौद्ध ] उपमान का प्रामाण्य असंभव है, क्योंकि अपूर्वअर्थग्राही वह नहीं है। 'अरे ! पहले हमने उपमान 20 की अपर्वार्थग्राहिता का उपदर्शन करा दिया है। हाँ सच है कि आपने कराया है किन्तु वह अयुक्त है। देखिये - आपने बताया कि उपमान का विषय सादृश्यविशिष्ट गौआ अथवा गोविशिष्ट सादृश्य है। किन्तु सादृश्य क्या है वह कहाँ बताया ? सादृश्य तो बहुसामान्यअवयवों का योगरूप ही कहा गया है। कई बार कह चुके हैं - सामान्य अथवा सामान्य का योग (समवाय) वस्तु ही नहीं है। कदाचित् सामान्य का स्वीकार करें, फिर भी आप तो उसे प्रत्यक्षविषय मानते हैं, तो वह उपमान 25 का गोचर कैसे होगा ? यदि होगा तो (प्रत्यक्ष से) गृहीतार्थ का ग्रहण होने से प्रामाण्य का मूल ही गया। सादृश्य ज्ञान का जो क्रम है उस से भी उपमान की प्रमाणान्तरता निर्मूल होती है। [ सादृश्यज्ञान की क्रमबद्धता का निरूपण ] देखिये - पहले तो दृष्टा गौ-गवय का शृंगवत्त्व आदि रूप सादृश्य गौ में प्रत्यक्ष से देखता है। बाद में गवय का दर्शन होने पर ‘यह जो शृंगवत्त्वादि सादृश्य इस पिण्ड में दिखता है वह 30 मैंने गौआ में भी देखा था' ऐसा स्मरण होता है। बाद में गौआ में शृंगवत्त्वादि सादृश्य का अनुसन्धान होता है - 'इस पिण्ड के सदृश गौ है।' इस ढंग से पुरोवर्ति (गवय) पिंड के सादृश्य से विशिष्ट जो गोज्ञान हुआ यह तो स्मृति है, फिर प्रमाणान्तर कैसे ? अथवा, यदि गौआ में प्रत्यक्ष से गो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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