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खण्ड - ४, गाथा - १
[ बौद्धमतेन शाब्दादिसमीक्षया मीमांसकादिप्रतिक्षेपः ]
अत्र प्रतिविधीयते यत् तावत् शाब्दस्य त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृग्विषयाभावाच्चानुमानानन्तर्भावप्रतिपादनमभ्यधायि (३८७-७) तद् युक्तमेव । न ह्यप्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावो युक्तः । 'कुतः पुनः शब्दोद्भवस्य ज्ञानस्याऽप्रामाण्यम् ?' शब्दस्यार्थप्रतिबन्धाभावात् । न हि शब्दोऽर्थस्य स्वभाव:, अत्यन्तभेदात् । नापि कार्यम्, तेन विनापि भावात् । न च तादात्म्य - तदुत्पत्तिव्यतिरिक्तः सम्बन्धो गमकत्वनिबन्धनमस्ति । न 5 च संकेतबलात् वास्तवप्रतिपत्तिशक्तियुक्तानां प्रदीपानामिवार्थप्रकाशकत्वं संभवति । न च व्यवस्थितैवार्थप्रतिपादनयोग्यता संकेतेन शब्दस्याभिव्यज्यत इति वक्तव्यम्, पुरुषेच्छावशादन्यत्रार्थे शब्दस्य समयादप्रवृत्तिप्रसक्तेः । दृश्यते च पुरुषेच्छावशादन्यत्रापि विषये शब्दानां प्रवृत्तिः । न च पुरुषेच्छावृत्तिः समयो वस्तुप्रतिबद्धः, तदभावेऽपि तस्य प्रवृत्तेः । न च संकेतमन्तरेण शब्दस्य वस्तुप्रत्यायकत्वम् संकेताभावप्रसक्तेः । आप्तप्रणीतशब्दानां पुनरर्थाऽव्यभिचारेऽप्याप्तप्रणीतत्वाऽनिश्चयादेवाऽप्रामाण्यम् न पुनराप्तस्यैवाऽसम्भवात्, तत्सम्भव- 10 बाधकप्रमाणाभावात् । ततो बाह्ये विषये शब्दानां प्रतिबन्धाभावतः प्रामाण्यमेव न संभवति । पक्षधर्मत्वाप्रमाणों का अभाव एक स्वतन्त्र प्रमाण है। उस का प्रत्यक्षादि में अन्तर्भाव शक्य न होने से वह प्रमाणान्तर है यह निश्चित होता है।
[ शब्द प्रमाणान्तर नहीं है बौद्धमत ]
अब प्रमाणान्तरत्व का प्रतिक्षेपः यह जो कहा गया कि ( ३८७-२३) शाब्द में त्रैरूप्य ( पक्षसत्त्वादि) 15 न रहने से एवं उस का तथाविधविषय भी न होने से अनुमान में शाब्द का अन्तर्भाव नहीं है
यह तो सच्चा ही है । अप्रमाण का अनुमान में अन्तर्भाव अयुक्त ही है। 'अरे ! शब्दजन्य ज्ञान अप्रमाण कैसे ?' प्रश्न का उत्तर :- शब्द का अर्थ के साथ प्रतिबन्ध न होने से। शब्द न तो अर्थ का स्वभाव है अत्यन्त भेद होने से न तो वह अर्थ का कार्य है क्योंकि अर्थ विना भी शब्द का उद्भव होता है। मतलब, अर्थ का शब्द के साथ न तादात्म्यसंबन्ध है, न तदुत्पत्तिसम्बन्ध है, 20 न तो ज्ञापकताप्रयोजक अन्य कोई सम्बन्ध है । यदि शब्द वस्तुतः अर्थबोधकशक्तियुक्त होते तो प्रदीप की तरह संकेत की सहायता से शब्दों का अर्थप्रकाशकत्व न होता ( किन्तु प्रदीपवत् स्वतः होता ) । [ शब्द में अर्थनिरूपणयोग्यता का निषेध ]
यदि कहा जाय शब्दों अर्थप्रतिपादनयोग्यता सहज अवस्थित है, किन्तु वह संकेत से अभिव्यक्त
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होती है (इस प्रकार संकेत की सार्थकता है ।) तो यह अयुक्त है, कारण :- संकेत का ऐसा है कि 25 वह पुरुष की स्वच्छंद इच्छा को अधीन हो कर किसी भी शब्द का किसी भी अर्थ में प्रवर्त्तन होता है । इसी हेतु से अराजकता फैलेगी, अन्ततः शब्द प्रवृत्ति रुक जायेगी । दिखता है न, पुरुषेच्छा के अधीन प्रसिद्ध अर्थ से अन्य अर्थों में भी शब्द की प्रवृत्ति होती है। पुरुषेच्छा अधीन संकेत भी वस्तु से व्याप्त नहीं होता, बिना वस्तु के भी वह प्रवृत्त होता रहता है । यह भी मान लिया कि संकेत के विना शब्द वस्तुनिश्चायक नहीं होता, क्योंकि तब संकेत निरर्थक ठहरेगा । यह तथ्य मानते 30 हैं कि आप्त (विश्वस्त) प्ररूपित शब्द अर्थव्यभिचारी नहीं होता, किन्तु मुसीबत यह है कि निश्चय कैसे होगा कि ये शब्द आप्तप्ररूपित हैं ? अत एव ही शब्द अप्रमाण है, न कि आप्त कोई पुरुष
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