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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
वक्तव्यम्— यतः सदसदात्मके वस्तुनि प्रत्यक्षादिना तत्र सदंशग्रहणेऽप्यगृहीतस्याऽसदंशस्य व्यवस्थापनाय प्रमाणाभावस्य प्रवर्त्तमानस्य न प्रामाण्यव्याहतिः । तदुक्तम्- ( श्लो०वा० अभाव० श्लो०१२-१३-१४, १७) स्वरूप- पररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते किंचित् रूपं कैश्चित् कदाचन ।।। यस्य यत्र यदोद्भूतिर्जिघृक्षा चोपजायते । चेत्यतेऽनुभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते ।। तस्योपकारकत्वेन वर्ततेंऽशस्तदेतरः । उभयोरपि संवित्त्योरुभयानुगमोऽस्ति तु ।। प्रत्यक्षाद्यवतारश्च भावांशो गृह्यते यदा । व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षितः । । न च भावांशादभिन्नत्वादभावांशस्य तद्ग्रहणे तस्यापि ग्रह इति, सदसदंशयोर्धर्म्यभेदेऽपि भेदाभ्युपगमात् । उक्तं च- ( श्लो० वा० अभाव० श्लो० १९-२० )
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'ननु भावादभिन्नत्वात् सम्प्रयोगोऽस्ति तेन च । न ह्यत्यन्तमभेदोऽस्ति रूपादिवदिहापि नः ।। धर्मयोर्भेद इष्टो हि धर्म्यभेदेऽपि नः स्थिते । उद्भवाभिभवात्मत्वाद् ग्रहणं चावतिष्ठते ।। इत्यादि ।। तदेवमगृहीतप्रमेयाभावग्राहकत्वात् प्रमाणाभावस्य प्रमाणत्वम् प्रत्यक्षादिष्वनन्तर्भावात् प्रमाणान्तरत्वं च
व्यवस्थितम् ।
नहीं होता, तब उस के निश्चायक के रूप में प्रवर्त्तनेवाला अभावसंज्ञक प्रमाण का प्रामाण्य कैसे संगत है ?” क्योंकि वस्तुमात्र सत्-असत् उभयांशी होती है। प्रत्यक्षादि से सिर्फ उस के सत् अंश का ग्रहण होता है, दूसरे अगृहीत रह जाने वाले असत् अंश के निश्चयार्थ प्रवर्त्तनेवाले अभावप्रमाण का प्रामाण्य इसी लिये अक्षुण्ण है । श्लो०वा० (अभाव० १२-१३-१४, १७) में कहा है
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[ स्व- पर रूप से वस्तुमात्र सद्- असउभयस्वरूप ]
'वस्तु स्व - पररूपों से हरहमेश सत् - असत् (उभय) आत्मक है उन में से कभी कोई (एक) रूप किन्हों को ज्ञात होता है । जिस को जब जिस (अंश) में जिज्ञासा और उद्भव होता है उस को 20 अनुभव जाग्रत होता है और ( तब ) उस (अंश) का व्यवहार होता है । इतर अंश तभी ( किसी रूप से उस व्यवहार में) उपकारकरूप से बरतता है । ( जब) उभय (अंश से) संवेदन होता है तब उभयरूप से अनुगम होता है। जब प्रत्यक्षादि व्यापृत होते हैं तब भावांश ही गृहीत होता है, अभावांश (प्रत्यक्षादि का) उद्भव न होने से उस अंश के ग्रहणार्थ (अभावप्रमाण का ) व्यापार वांछनीय होता है ।। यदि कहें 'अभावांश भावांश से अभिन्न होने से उस ( भावांश) के ग्रहण में उस का ( अभावांश 25 का ) ग्रहण भी प्राप्त हुआ' यह गलत है, क्योंकि दोनों सदंश- असदंश का धर्मी वस्तु एक होने पर भी उन अंशों में हम भेद का स्वीकार करते हैं, अतः एक के ग्रहण में दूसरे के ग्रहण का तर्क अयुक्त है । श्लोकवार्त्तिक (अभाव० १९-२० ) में कहा है
शंका :- भाव (अंश) से अभिन्न होने के कारण, उस (असदंश ) के साथ भी सम्बन्ध प्राप्त है । उत्तर :- रूपादि की तरह यहाँ भी हम अत्यन्त अभेद होना नहीं मानते हैं ।। हमें तो धर्मी 30 का अभेद रहते हुए भी धर्मों का भेद मान्य है । कभी उद्भव ( उद्भूतत्व) कभी अभिभव स्वरूपात्मक होने से (एक-एक का) ग्रहण जाग्रत् होता है ।। इत्यादि ।
निष्कर्ष : उक्त प्रकार से प्रत्यक्षादि से अगृहीत प्रमेयाभाव का ग्राहक होने के कारण (पंच)
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