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खण्ड-४, गाथा-१
३९७ अभिधानप्रसिद्ध्यर्थमर्थापत्त्यावबोधितात्। शब्दे वाचकसामर्थ्यात् तन्नित्यत्वप्रमेयता ।।५।। प्रमाणाभावनिर्णीतचैत्राभावविशेषितात्। गेहाच्चैत्रबहिर्भावसिद्धिर्या त्विह दर्शिता ।।८।। तामभावोत्थितामन्यामापत्तिमुदाहरेत् ।।९।।... इत्यादि ।
इयं च षट्प्रकाराप्यर्थापत्तिर्नाध्यक्षम् अतीन्द्रियशक्त्याद्यर्थविषयत्वात् । अत एव नानुमानम् प्रत्यक्षावगतप्रतिबद्धलिङ्गप्रभवत्वेन तस्योपवर्णनात्, अर्थापत्तिगोचरस्यार्थस्य कदाचिदप्यध्यक्षाऽविषयत्वात्, तेन 5 सहार्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य सम्बन्धाप्रतिपत्तेः, तदैवार्थापत्त्या ततस्तस्य प्रकल्पनात् प्रमाणान्तरमेवार्थापत्तिः ।
[ अभावप्रमाणनिरूपणम्- मीमांसकमतम् ] अर्थस्याऽसंनिकृष्टस्य प्रसिद्ध्यर्थं प्रमान्तरम्। प्रमाभावमभावाख्यं वर्णयन्ति तथाऽपरे।। ( ).
“अभावोऽपि प्रमाणाभावः 'नास्ति' इत्यर्थस्याऽसंनिकृष्टस्य” (शा०भा०१-१-५) इति वचनात् । अन्ये पुनरभावाख्यं प्रमाणं त्रिधा वर्णयन्ति - प्रमाण-पञ्चकाभावलक्षणोऽनन्तरोक्तोऽभावः, प्रतिषिध्यमानाद् वा 10 तदन्यज्ञानम् आत्मा वा विषयरूपेणाऽनभिनिवृ(वृ)त्तस्वभाव इति । अनेन चाभावप्रमाणेन प्रदेशादौ घटादीनामभावो गम्यते। तदुक्तम्- (श्लो॰वा०अभाव०१, ११) से निश्चित चैत्राभाव से विशिष्ट गृह से चैत्र की बहिर्भावसिद्धि जो यहाँ दर्शायी जाती है वह, अभाव (प्रमाण) से उत्थित ऐसी अन्य अर्थापत्ति लक्षित करना।'
छह प्रकारवाली ये अर्थापत्तियाँ एक भी प्रत्यक्षात्मक नहीं है, क्योंकि उस का विषय शक्ति आदि 15 अर्थ अतीन्द्रिय है। प्रत्यक्ष नहीं है। अत एव अनुमानात्मक भी नहीं हो सकती। कारण, अनुमान तो प्रत्यक्ष से ज्ञात व्याप्तियुक्त लिंग से निपजनेवाला दिखाया गया है। अर्थापत्ति का विषयभूत अर्थ (शक्ति आदि) कभी भी प्रत्यक्षगोचर न होने से उस के साथ अर्थापत्तिप्रेरक अर्थ के (व्याप्तिरूप) सम्बन्ध का भान अशक्य होता है। (विना व्याप्तिज्ञान के) उसी काल में (दृष्ट-श्रुत अर्थ ग्रहण काल में) अर्थापत्ति के द्वारा उस अर्थ (श्रुत-अर्थ) से उस अर्थ (शक्ति आदि) की कल्पना की जाती है। अत एव अर्थापत्ति 20 स्वतन्त्र प्रमाण है।
[ मीमांसकमतानुसार अभावप्रमाण का निर्देशन ] ‘(नास्ति - इस प्रकार जो) असंनिकृष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये प्रमाणभावरूप अभावसंज्ञक प्रमान्तर है - ऐसा अन्य (विद्वान्) वर्णन करते हैं।' शाबरभाष्य का ऐसा वचन है – “असंनिकृष्ट अर्थ का 'नास्ति' इस प्रकार प्रमाणाभावरूप अभाव (प्रमाण) है।"
__ कुछ अन्य विद्वान अभावप्रमाण को तीन प्रकार से दिखाते हैं। भाष्य में अभी कहा है तदनुसार एक तो प्रमाणपंचकाभावस्वरूप अभाव (प्रमाण)। दूसरा, जिस का (पर्युदास नञ् से) प्रतिषेध होता है उस से अन्य का (जो विधानात्मक) ज्ञान होता है। तीसरा, कोई ज्ञानविषयक न होने पर, विषयबोधरूप से अपरिणतस्वभाववाला आत्मा। इस प्रकार के अभाव प्रमाण से (घटशुन्य) भूप्रदेश आदि में घटादि का अभाव ज्ञात होता है। श्लो॰वा० (अभाव० श्लो० १ और ११) में कहा है – “जिस वस्तु के 30 बारे में वस्तु के अस्तित्व का भान करने के लिये पाँच प्रमा (पाँच में से एक भी प्रमा) उत्पन्न नहीं होती वहाँ अभाव की प्रमाणता है। प्रत्यक्षादि जहाँ प्रवृत्त नहीं होते, अभावप्रमाण वहाँ कहा
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