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खण्ड-४, गाथा-१
३९५ पिण्डविषयं तच्चेन्द्रियार्थसंनिकर्षादुपजायते यथा प्रत्यक्षफलमनुमानं विशिष्टफलजनकत्वात्। एवं प्रमाणान्तरानिष्पाद्यविशिष्टफलजनकत्वात् प्रमाणान्तरमुपमानम् ।
[ अर्थापत्तिः प्रमाणान्तरम् - मीमांसकमतम् ] अर्थापत्तिरपि प्रमाणान्तरम् । यतस्तस्या लक्षणम्- ‘अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पना' (शा०भा०१-१-५)। कुमारिलोऽप्येतदेव भाष्यवचनं विभजन्नाह-(श्लो॰वा अर्था०१-२) 5
'प्रमाणषटकविज्ञातो यत्रार्थो नान्यथा भवेत्। अदृष्टं कल्पयत्यन्यं साऽर्थापत्तिरुदाहृता।। दृष्टः पञ्चभिरप्यस्माद् भेदेनोक्ता श्रुतोद्भवा। प्रमाणग्राहिणीत्वेन यस्मात् पूर्वविलक्षणा।।'
प्रत्यक्षादिभिः षड्भिः प्रमाणैः प्रसिद्धो योऽर्थः स येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य प्रकल्पनमापत्तिः यथाग्नेर्दाहकत्वम् । तत्र 'प्रत्यक्षपूर्विकाऽर्थापत्तिः यथाग्नेः प्रत्यक्षेणोष्णस्पर्शमुपलभ्य दाहकशक्तियोगोऽर्थापत्त्या प्रकल्प्यते । न हि शक्तिरध्यक्षपरिच्छेद्या। नाप्यनुमानादिसमधिगम्या, अप्रत्यक्षेणाऽर्थेन शक्तिलक्षणेन कस्यचि- 10 दर्थस्य सम्बन्धाऽसिद्धेः । अनुमानपूर्विका त्वर्थापत्तिः यथादित्यस्य देशान्तरप्राप्त्या देवदत्तस्येव गत्यनुमाने ततो गमनशक्तियोगोऽर्थापत्त्यावसीयते। 'उपमानपूर्विका त्वर्थापत्तिः यथा 'गवयवद् गौः' इत्युक्तेराद् है। तो जैसे विशिष्टफलजनक होने से प्रत्यक्षफलरूप अनुमान प्रमाणान्तर है वैसे ही अन्यप्रमाण से असाध्य ऐसे विशिष्टफल का (सं०सं०सं० बोध का) जनक होने से 'उपमान' भी प्रमाणान्तर सिद्ध हुआ। नैयायिक वक्तव्यता समाप्त ।
[ अर्थापत्ति भी स्वतन्त्र प्रमाण-मीमांसकमत ] अर्थापत्ति भी स्वतन्त्र प्रमाण है। शाबरभाष्य में उस का यह लक्षण है - दृष्ट या श्रुत अर्थ जिस के विना उपपन्न नहीं है अतः (अन्य) अदृष्ट अर्थ की कल्पना की जाय यह प्रमाण अर्थापत्ति है। इसी भाष्यवचन का विभागप्रदर्शन करनेवाले कुमारिल कहते हैं - (श्लो॰वा.अर्थाःश्लो०१-२) 'षट् प्रमाणों से ज्ञात अर्थ अन्य के विना (अनुपपद्यमान होने से) संगत नहीं होता तब अन्य अदृष्ट (अर्थ) 20 की कल्पना करायेगा - यही अर्थापत्ति कही गयी है।। शाबरभाष्य में 'दृष्ट' लिखने पर भी 'श्रुत' क्यों लिखा है उस का स्पष्टीकरण श्लो.२ में किया है – 'दृष्ट का मतलब पांच प्रमाणों से। श्रुतजन्य (अर्थापत्ति) का उन से भिन्न निर्देश किया है। प्रमाणग्राहिणीत्व के भेद से दृष्टार्थापत्तियों से विलक्षणता दीखाने के लिये श्रुतार्थापत्ति का पृथग्ग्रहण किया है।।
भाव यह है कि पाँच प्रमाणों प्रत्यक्षादि से प्रसिद्ध ऐसा जो अर्थ जिस अन्य अर्थ के विना 25 उपपन्न नहीं हो सकता उस अर्थ की कल्पना ही अर्थापत्ति प्रमाण है जैसे अग्नि में दाहकत्व शक्ति की कल्पना। स्पष्टता :- १,प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्ति :- प्रत्यक्ष से अग्नि के उष्ण स्पर्श को छुने पर अग्नि में दाहकशक्तियोग अर्थापत्ति से कल्पित होता है। यहाँ शक्ति प्रत्यक्षगोचर तो नहीं है. अनमानादिगोचर भी इस लिये नहीं है कि अप्रत्यक्षशक्तिरूप अर्थ के साथ किसी भी अर्थ का सम्बन्ध (व्याप्ति) सिद्ध नहीं है। २,अनुमानपूर्वक अर्थापत्ति :- उदा. देवदत्त की तरह सूरज की स्थानान्तरप्राप्ति से सूर्यगति 30 का अनुमान होने पर, अनुमितगति से सूर्य में गमनशक्तियोग अर्थापत्ति से ज्ञात होता है।
३-उपमानपूर्वक अर्थापत्ति :- ‘गवयतुल्य गाय' इस वचन से गाय में वाह-दोहादिशक्तियोग अर्थापत्ति
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