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________________ ३९४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रत्यक्षेण प्रतीतत्वात्। न ह्यप्रतीते महानसादावग्निसामान्येऽनुमानप्रवृत्तिरिति अप्रतीतार्थाप्रतिपादकत्वादनुमानं न प्रमाणं भवेत्। न च विशिष्टदेशाद्यवच्छेदसाधकत्वेनास्य प्रामाण्यम् इतरत्रापि समानत्वात्। तथाहिसन्निधीयमानपिण्डविषयत्वेन स्वप्रतिपाद्यमिदं प्रतिपादयति आगमस्त्वसंनिहितपिण्डविषयत्वेन । न चागमात् संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धः प्रतीयते, ततः सारूप्यमात्रप्रतीतेः। यत्र च शब्दस्यैव साधकतमत्वं तदेव शाब्दफलम्, 5 न च विप्रतिपत्त्यधिकरणे संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धज्ञाने एतत् समस्ति। प्रत्यक्षफलं तु न भवत्येवैतत् संज्ञा संज्ञिसम्बन्धस्येन्द्रियेणाऽसंनिकर्षात् । तदसंनिकर्षश्चेन्द्रियाऽविषयत्वात् तस्य। तदेवं संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिरूपं फलं यतः समुपजायते तदुपमानम् । आह च सूत्रकार:- 'साध्यसाधनम्' (न्या सू०१-१-६) साध्यं = विशिष्टं फलम् तस्य साधनं = जनकं यत् तदुपमानम् । एवं सारूप्यज्ञानवत् सारूप्यस्याप्युपमानत्वं न पुनः संज्ञा संज्ञिसम्बन्धज्ञानस्य, फलाभावात् । न च हेयादिज्ञानमस्य फलं प्रत्यक्षादिफलत्वात्। तथाहि- हेयादिज्ञानं 10 ऐसा तर्क करना ठीक नहीं है क्योंकि अनुमान के पूर्व अग्निसामान्य प्रत्यक्ष से प्रतीत होने से अनुमान भी प्रत्यक्ष में अन्तर्भूत होकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को खो बैठेगा। क्या भोजनगृह में अग्निसामान्य की जिस को प्रत्यक्षप्रतीति कभी नहीं हुई उस को कभी अनुमान होगा ? जब पूर्व में प्रत्यक्ष प्रतीति जरूरी है तब कह सकते हैं कि अनुमान भी अप्रतीत अर्थ का प्रतिपादक न होने से प्रमाण नहीं है। यदि कहें कि – 'पूर्व में प्रत्यक्ष प्रतीत होने पर भी अनुमान के द्वारा प्रतिनियत देश-काल विशिष्ट 15 अग्नि का साधक होने से अनुमान प्रमाण है' - तो उपमान में भी यह समाधान समान है। देखिये - आगम (आप्तवाक्य) तो असंनिहितपिण्ड का निर्देश करता है जब कि उपमान तो संनिधानवर्ति अपने विषय का निरूपण (= निर्देश) करता है। आगम से तो सिर्फ सारूप्य मात्र ही प्रतीत होता है, संज्ञा-संज्ञिसम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। जिस बोध के प्रति शब्द ही साधकतम है वही बोध शाब्दफल माना जायेगा। प्रस्तुत में विवादापन्न बोध यानी संज्ञा-संज्ञिसबन्धज्ञान के प्रति शब्द साधकतम नहीं 20 है। तथा, संज्ञा-संज्ञि सम्बन्धज्ञान के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष न होने से इस के बोध को प्रत्यक्षफल तो कतई नहीं माना जा सकता, इन्द्रियसंनिकर्ष न होने का कारण भी यही है कि वह सम्बन्ध इन्द्रियगोचर नहीं है। निष्कर्ष. जिस के द्वारा संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धबोधरूप फल निपजता है वह 'उपमान' है। सत्र न्यायसूत्र (१-१-६) में 'साध्यसाधनम्' कह कर यही निर्दिष्ट किया है। साध्य यानी विशिष्ट फल (संज्ञा संज्ञिसम्बन्धबोध), उस का जो जनक है वह उपमान है - यह सूत्र का भावार्थ है। 25 यहाँ ज्ञातव्य है कि संज्ञा-संज्ञिसम्बन्ध बोध उपमानफल है न कि उपमान। उपमान तो सारूप्यज्ञान है क्योंकि सं०सं०सं०ज्ञान उस का फल है। सं०सं०सं० ज्ञान का आगे कोई फल ज्ञान नहीं है इस लिये उस को 'उपमान' नहीं कह सकते। इतना विशेष है कि सारूप्यज्ञान जैसे सं०सं०सम्बन्ध बोध फल को निपजता है वैसे सारूप्य भी उस को निपजाता है अतः उसे भी 'उपमान' कहना न्याययुक्त है। यह कहना कि - 'सं०सं०सं० बोध का हेयादिज्ञान फल मान कर संबोध को भी 'उपमान' क्यों 30 न माना जाय' - तो यह नहीं हो सकता क्योंकि हेयादि ज्ञान तो प्रत्यक्षादि का हेयादि ज्ञान का विषय गौ या गवय पिण्ड है, पिण्डविषयक ज्ञान तो इन्द्रिय-पिण्ड संनिकर्ष से निपजता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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