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________________ ३८८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तामन्तरेणाप्यर्थस्य प्रागेव प्रतीतेः, अन्यथा तस्य तद्धर्मतया प्रतीत्ययोगात्। __ भवतु वार्थो धर्मी, तथापि किं तत्र साध्यमिति वक्तव्यम्। 'सामान्यम्' इति चेत् ? न, तस्य धर्मिपरिच्छेदकाले एव सिद्धत्वात् तदपरिच्छेदे धर्मिपरिच्छेदाऽयोगात् 'नाऽगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः' ( ) इति न्यायात्। 5 न च सामान्यं धर्मी अर्थविशेषस्तत्र साध्यो धर्मः, उक्त दोषानतिक्रमात् विशेषस्य चानन्वयात् । अथ शब्दो धर्मी, ‘अर्थवान्' इति साध्यो धर्मः, शब्द एव च हेतुः। न, प्रतिज्ञार्थेकदेशत्वप्राप्तेः। अथ शब्दत्वं हेतुरिति न प्रतिज्ञार्थेकदेशत्वं दोषः । न, शब्दत्वस्याऽगमकत्वात् गोशब्दत्वस्य च निषेत्स्यमानत्वेनाऽसिद्धत्वात्। अत एवानुमानतुल्यविषयतापि न शाब्दे संभवति। तदुक्तम्- (श्लो॰वा शब्दपरि०५५ ५६, ६२-६३-६४) “सामान्यविषयत्वं हि पदस्य स्थापयिष्यते।।५५ उ०।। 10 धर्मी-धर्मविशिष्टश्च लिङ्गीत्येतच्च साधितम् । न तावदनुमानं हि यावत्तद्विषयं न तत् ।।५६।। अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन पक्षः कस्मान्न कल्प्यते।।६२उ.।।" हो गया है। यदि अर्थ पूर्व ज्ञात नहीं हुआ तब तो शब्द में उस के धर्मरूपता की प्रतीति भी असंभव है। [शब्द के द्वारा सामान्यादि की अर्थ धर्मी में सिद्धि का व्यर्थ प्रयास ] अरे ! चलो मान लिया कि अर्थ धर्मी है फिर भी उस में क्या सिद्ध करना है यह तो बोलो ?! 15 सामान्य ? (शब्द से सामान्य का बोध होता है तो अनुमान में भी शब्द के माध्यम से सामान्य रूप साध्य, धर्मी अर्थ में बोधित करना है ?) नहीं रे ! वह तो धर्मी जिस काल में ज्ञात हुआ उसी काल में सिद्ध हो चुका है। यदि वह ज्ञात (=सिद्ध) नहीं हुआ तो धर्मी का (सामान्य के धर्मी के रूप में) बोध ही कैसे शक्य होगा ? प्रसिद्ध न्याय है कि 'विशेषण के अज्ञात रहने पर विशेष्य की (विशेष्य = धर्मी के रूप में) बुद्धि नहीं होती। 20 यदि कहें - यहाँ सामान्य को धर्मी बना कर 'वह अर्थविशेषयुक्त है' यह साध्य करेंगे - तो भी वही दोष (- सामान्य (जाति) का बोध व्यक्ति के बोध विना अशक्य है)। तथा अकेले सामान्य का विशेष के साथ अन्वय भी लुप्त हो जायेगा। यदि शब्द को ही धर्मी बना कर ‘सार्थकत्व' साध्य धर्म और शब्द को हेतु करे तो धर्मीहेतु एक होने से प्रतिज्ञात अर्थ का एक देश रूप लिङ्ग घट नहीं सकता। यदि शब्द के बदले शब्दत्व को हेतु करें तो यद्यपि प्रतिज्ञार्थैकदेश दोष नहीं होगा 25 फिर भी वह ठीक नहीं है क्योंकि शब्दत्व को अर्थविशेष के साथ अविनाभाव सम्बन्ध न होने से वह गमक नहीं हो सकेगा। यदि गोशब्दत्व को हेतु करें, किन्तु उसका तो आगे चल कर निषेध होनेवाला है (गोशब्दत्व कोई वस्तु ही नहीं है। अतः वह असिद्ध हो जाता है। जब इस प्रकार शाब्द और अनुमान का कोई मेल ही नहीं खाता, तब शाब्द में अनुमानतुल्यविषयता का प्रतिपादन भी असंभव है। श्लोकवार्त्तिक में शब्दपरिच्छेद में कहा है - (गाथा-५५-५६, ६२-६३-६४) 30 “शब्द सामान्यविषयक है यह स्थापना की जाने वाली है, धर्मविशिष्ट धर्मी लिङ्गी है यह भी निश्चित है। वह तो अनुमान ही नहीं है जो तद्विषय (= लिङ्गीविषयक) नहीं है। प्रश्न :- अर्थ (वाच्यार्थ) वत्त्वरूप से शब्द पक्षतया क्यों नहीं माने ? उत्तर :- वहाँ (शब्द को हेतु करने से) प्रतिज्ञार्थंकदेश 4. धर्माऽधर्मविशिष्टश्च इति मुद्रित श्लो० वा. पाठः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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