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खण्ड-४, गाथा-१
तत्प्रकारयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणत्वात्। अतः प्रमेयान्तराभावाद् न प्रमाणान्तरभावः । उक्तं च - 'न प्रत्यक्ष-परोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः। तस्मात् प्रमेयद्वित्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते।।' (प्र०वा०२-६३)
[ मीमांसकस्य शाब्दप्रमाणान्तरस्थापना ] अत्राह मीमांसक:- ‘शब्दज्ञानादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः शाब्दम्' (शाबरभाष्य १-१-५) इति वचनात्, 'शब्दादुदेति यद् ज्ञानमप्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि। शाब् तदिति मन्यन्ते प्रमाणान्तरवादिनः। ( )" 5
इतिलक्षणलक्षितस्य प्रमाणान्तरस्य सद्भावात् कथं द्वे एव प्रमाणे ? न चास्य प्रत्यक्षप्रमाणता सविकल्पकत्वात्। नाप्यनुमानता, त्रिरूपलिङ्गाऽप्रभवत्वात् अनुमानगोचराऽविषयत्वात् च। तदुक्तम् - (श्लो॰वा-शब्दपरि० ९८)।
‘तस्मादननुमानत्वं शाब्देऽप्रत्यक्षवद् भवेत्। त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृग्विषयवर्जनात् ।।"
तथाहि- न शब्दस्य पक्षधर्मत्वम् धर्मिणोऽयोगात् । न चार्थस्य, तेन तस्य सम्बन्धाऽसिद्धेः। न 10 चाऽप्रतीतेऽर्थे तद्धर्मतया शब्दस्य प्रतीतिः संभविनी। प्रतीते चार्थे न तद्धमताप्रतिपत्तिः शब्दस्योपयोगिनी,
और अतथाप्रकार का यह लक्षण है कि वे एक-दूसरे का परिहार कर के रहनेवाले होते हैं – इस प्रकार विरुद्ध की उपलब्धि से अन्य प्रकार का निषेध सिद्ध होने पर प्रमेयान्तर अभाव से प्रमाणान्तर भाव का निषेध सिद्ध होता है। प्रमाणवार्त्तिक में कहा है (प्र०वा०२-६३) - प्रत्यक्ष और परोक्ष को छोड कर प्रमेय के अन्य कोई प्रकार का सम्भव नहीं है, अतः दो प्रकार के प्रमेय की सिद्धि से 15 प्रमाण भी दो सिद्ध होते हैं।
[प्रत्यक्षानुमानभिन्न शब्दप्रमाण की सिद्धि - मीमांसक ] शाब्द के अनुमान में अन्तर्भाव के विरोध में मीमांसक अपना पक्ष दिखाते हैं - शाबरभाष्य में कहा है 'शब्दज्ञान से असंनिकृष्ट (अन्यदेशकालीन) अर्थ की बुद्धि यह शाब्द(प्रमाण) है।' तथा अन्य विद्वानोंने एक श्लोक द्वारा कहा है - 'अप्रत्यक्ष वस्तु का शब्द से जो ज्ञान उदित होता है 20 वह शाब्द है - ऐसा प्रमाणान्तरवादियों का मत है।' इस लक्षण से निर्दिष्ट शाब्दरूप प्रमाणान्तर जब मौजूद है तब ‘दो ही प्रमाण' होने का कैसे माना जाय ? शाब्दबोध तो विकल्परूप है, बौद्ध मत विकल्प को प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मानते, अतः प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। शाब्दबोध अनुमानरूप भी नहीं है क्योंकि रूपत्रययुक्त लिंग से जन्य नहीं है तथा अनुमान का गोचर उस का विषय भी नहीं है। कहा है (श्लोकवार्तिक में) – 'शाब्द में अप्रत्यक्षता की तरह अननुमानरूपता 25 है क्योंकि तीन रूप नहीं है और तादृश विषय का त्यागी है।' (शाब्द. ९८)
__त्रैरूप्य कैसे नहीं है ? देखिये - स्व के अलावा स्व का कोई धर्मि (पक्ष) न होने से शब्द में पक्षधर्मत्व ही नहीं है। अर्थ भी शब्द का धर्मी नहीं है क्योंकि अर्थ के साथ उस का प्रत्यक्षअनुमानप्रेरक सम्बन्ध ही असिद्ध है। शब्दश्रवण के पूर्व में जो अर्थ पूर्णतः अज्ञात है उस के धर्मरूप में शब्द का भान संभवित नहीं है। जो अर्थ पूर्व ज्ञात है उस की भी धर्मरूपता शब्द में हो नहीं सकती, कदाचित् 30 हो तब भी निरुपयोगिनी है क्योंकि उस की शब्द में धर्मरूपता के विना भी अर्थ तो पहले ही ज्ञात
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