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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
तृतीयप्रकाराभावं च साधयति, तत्राऽप्रतीयमानस्य सकलस्याऽर्थजातस्यान्यत्वेन परोक्षतया व्यवस्थापनाद्, अन्यथा तस्य तदन्यात्मताऽव्यवच्छेदे तद्रूपतया परिच्छेदो न भवेत् इति न किञ्चिदध्यक्षेणावगतं भवेत् । प्रतिनियतस्वरूपता हि भावानां प्रमाणतो व्यवस्थिता, अन्यथा सर्वस्य सर्वत्रोपयोगादिप्रसङ्गतः प्रतिनिय
तव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिर्भवेत् । सा चेद् न प्रत्यक्षावगता किमन्यद् रूपं तेन तस्यावगतमिति पदार्थस्वरूपावभासिना 5 प्रमेयान्तराभावः प्रतिपादित एव।
अनुमानतोऽपि तदभावः प्रतीयत एव अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामितरप्रकारव्यवच्छेदेन तदितरप्रकारव्यवस्थापनात्। प्रयोगश्चात्र-यत्र यत्प्रकारव्यवच्छेदेन तदितरप्रकारव्यवस्था, न तत्र प्रकारान्तरसम्भवः । तद्यथा- पीतादौ नीलप्रकारव्यवच्छेदेन अनीलप्रकारव्यवस्थायाम्। अस्ति च प्रत्यक्ष-परोक्षयोरन्यतरप्रकार
व्यवच्छेदेनेतरप्रकारव्यवस्था व्यवच्छिद्यमानप्रकाराऽविषयीकृते सर्वस्मिन् प्रमेये - इति विरुद्धोपलब्धिः । तद10 है एवं वह उसी अर्थात्मा के साथ नियत प्रतिभास का प्रकाशन करता है इसलिये उसी अर्थात्मा के
प्रति 'प्रत्यक्ष' ऐसे व्यवहार का कारण बनता है। साथ साथ उस अर्थात्मा से भिन्न अर्थात्मा का विषयरूप से व्यवच्छेद भी करता है। उस अर्थात्मा से भिन्न समस्त अर्थों को अन्य राशि अन्तर्गत (प्रत्यक्षभिन्न यानी परोक्षराशिअन्तर्गत) जाहीर करता है, उन से (प्रत्यक्ष-परोक्ष से) भिन्न राशि का निषेध भी सिद्ध
करता है। इस प्रकार तृतीय प्रकार का अभाव भी सिद्ध करता है। कारण, वहाँ प्रत्यक्ष में अभासमान 15 समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष भिन्न परोक्षरूप से निश्चित किया गया है। यदि ऐसा न करे तो, पदार्थ
की स्वभिन्नरूपता का व्यवच्छेद न किया जाय तो स्वकीयरूप से स्व का स्पष्ट बोध भी नहीं हो सकेगा, फलतः प्रत्यक्ष के द्वारा (अपने अपने नियत स्वरूप से) कुछ भी भासित ही नहीं होगा। पदार्थों का प्रतिनियत स्वरूप प्रमाण से निश्चित होता है, अप्रमाण से यदि पदार्थस्वरूप निश्चित होने
का माना जाय तब तो किसी भी अर्थ के लिये किसी भी शब्दादि का उपयोग मान्य करने को बाध्य 20 होना पडेगा, तो तत्तदर्थ के लिये तथा तथा शब्दव्यवहार आदि समस्त नियत व्यवहारों का उच्छेद
प्रसक्त होगा। अतः पदार्थों की यथार्थस्वरूपता यदि प्रत्यक्ष को अज्ञात रहेगी तो अन्य कौन सा स्वरूप है पदार्थ का जिस को वह ज्ञात करेगा ?! अत एव प्रत्यक्ष जो कि पदार्थस्वरूप अवभासी है उसी से प्रमेयान्तर का अभाव भी सूचित होने में कोई बाध नहीं है।
[ अनुमान से भी प्रमेयान्तराभाव की सिद्धि ] 25 अनुमान से भी प्रमेयान्तर अभाव सुज्ञात किया जा सकता है - दो तत्त्व जब एक-दूसरे के
व्यवच्छेद (= भेद) रूप होते हैं तब एक प्रकार के निषेध करने पर अनायास ही दूसरे का विधान प्राप्त हो जाता है। प्रयोग ऐसा है - जहाँ जिस के एक प्रकार का निषेध करने द्वारा उस के अन्य प्रकार का विधान होता है वहाँ तीसरे प्रकार का सम्भव नहीं रहता। उदा० पीतवर्णादि के सम्बन्ध में नीलप्रकारता का निषेध करने द्वारा अनीलप्रकार का विधान होता है (तो वहाँ अनीलप्रकार छोड ॐ कर अन्य किसी प्रकार का सम्भव नहीं होता।) प्रत्यक्ष-परोक्ष के सम्बन्ध में भी दो में से एक प्रकार
का व्यवच्छेद करने पर दूसरे प्रकार का विधान प्राप्त होता है। निषिध्यमान प्रकार का अविषयीभूत हो ऐसे समस्त प्रमेय के बारे में ऐसी व्यवस्था है। - यह विरुद्धोपलब्धि हेतु हुआ। तथा प्रकार
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