SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तदनुमानान्तर्भूतम् यथा लिंगबलभावि, अप्रत्यक्षप्रमाणं च शाब्दादिकं प्रमाणान्तरत्वेनाभ्युपगम्यमानम् इति स्वभावहेतुः । यच्च यत्रान्तर्भूतं तस्य न ततो बहिर्भावः यथा प्रसिद्धान्तर्भावस्य क्वचित् कस्यापि, अन्तर्भूतं चेदं सर्वं प्रत्यक्षादन्यत् प्रमाणमनुमाने, इति विरुद्धोपलब्धिः, अन्तर्भाव-बहिर्भावयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया विरोधात्। अत एव – “प्रत्यक्षस्याभावविषयत्वविरोधाद् न ततः प्रमाणान्तराभावोऽवसातुं शक्यः। नापि कार्यस्वभावलक्षणादनुमानात्, कार्यस्वभावयोर्विधिसाधकत्वेनाऽभावसाधने व्यापाराऽनभ्युपगमात् । कारण-व्यापकानुपलब्थ्योस्तु अत्यन्ताऽसत्तयोपगते प्रमाणान्तरेऽभावसाधकत्वेन व्यापार एव न संगच्छते, अत्यन्तासतस्तस्य कार्यत्वेन व्याप्यत्वेन वा कस्यचिदसिद्धः। तयोश्च कार्य-कारण-व्याप्य-व्यापकभावसिद्धावेव व्यापाराद् विरुद्धविधिरप्यत्राऽसंभवी सहानवस्थानलक्षणस्य विरोधस्याऽत्यन्तासत्यसिद्धेः" ( ) इत्यादि यत् परेणोच्यते 10 यदि उन्हें ज्ञापक माने जाय तो सर्वदेशकालवृत्ति अर्थों का वह ज्ञापक बन बैठेगा क्योंकि धर्मीसम्बन्धनिरपेक्ष अर्थ को प्रत्यासत्ति (संनिकर्ष) या विप्रकर्ष से कुछ नाता रिश्ता नहीं है कुछ लेना-देना नहीं है। धर्मी सम्बन्ध सापेक्ष एवं अपने साध्य का अविनाभूत ऐसे धर्म से, परोक्ष अर्थका भान करानेवाला जो कोई प्रमाण है वह आखिर तो अनुमान ही है, क्योंकि अनुमान का यही तो लक्षण है। [ अप्रत्यक्षप्रमाण का अनुमानान्तर्भावक अनुमानप्रयोग ] 15 यहाँ एक प्रयोग देखिये - जो कोई अप्रत्यक्ष प्रमाण है वे सब अनुमानान्तर्भावि हैं जैसे लिंग के आधार से होने वाले (अप्रत्यक्ष) प्रमाण। अन्य प्रमाणरूप से स्वीकृत जो अन्यमतीय शाब्द आदि हैं वे भी अप्रत्यक्ष प्रमाण ही हैं (अत एव वे अनुमानान्तर्भावि होने चाहिये। यह स्वभावहेतुक प्रयोग है। अन्य प्रमाणों के अप्रत्यक्षस्वभाव को यहाँ हेतु किया गया है।) जो जिस में अन्तर्भूत होता है वह उस से बहिर्भूत नहीं होता, जैसे – किसी (पृथ्वी) में प्रसिद्ध अन्तर्भूत वस्तु (मिट्टी) उस (पृथ्वी) 20 से बहिर्भूत नहीं होती। प्रत्यक्षभिन्न प्रमाण भी अनुमान में अन्तर्भूत हैं। (अत एव वे अनुमान से बहिर्भूत नहीं हो सकते।) – यह विरुद्ध (बहिर्भूतत्व से विरुद्ध अन्तर्भूतत्व) की उपलब्धिस्वरूप हेतुप्रयोग है। स्पष्ट है कि परस्पर परिहार स्वरूपवाले होने के कारण अन्तर्भाव का बहिर्भाव से विरोध होता है। [प्रमाणान्तर के अभावसाधक निश्चय के असंभव का निरसन ] कोई भी प्रमाण प्रत्यक्ष या अनुमान में अन्तर्भूत है इसी लिये तो अभावविषयत्व बारे में जो 25 कुछ कहा गया है वह निरस्त समझ लेना। कहने वाले ऐसा कहते हैं – “प्रत्यक्ष में अभावविषयत्व का विरोध होने से, (अनुमान भी अभावग्राहक न होने से) अन्य प्रमाण के अभाव का निश्चय अशक्य है। अनुमान का भी अभावग्रहण में कोई योगदान शक्य नहीं, क्योंकि कार्यलक्षणानुमान एवं स्वभाव लक्षण अनुमान से कार्य एवं स्वभाव का ही विधिरूप से ग्रहण हो सकता है न कि अभाव का । अभाव को अत्यन्त असत् स्वरूप से ग्रहण करनेवाले अभावसाधक प्रमाणान्तर के विषय में न तो 30 कारणानुपलब्धि का कुछ योगदान है न तो व्यापकानुपलब्धि का। जो अर्थ (अभाव) अत्यन्त असत् है वह न तो किसी के कार्यरूप से सिद्ध है न व्याप्यरूप से । जब कि कारणानुपलब्धि और व्यापकानुपलब्धि का योगदान तो कार्य-कारणभाव एवं व्याप्यव्यापकभाव सिद्ध होने पर ही शक्य है। विरुद्धविधि अनुमान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy