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खण्ड-४, गाथा-१
३८३ चाध्यक्षादिकं प्रमाणमभ्युपगन्तव्यम् । न चैवमप्यपक्षधर्मस्य हेतोर्गमकत्वं प्राक्प्रदर्शितन्यायेनोपपद्यत इति पक्षधर्मत्वमपरं रूपान्तरं लक्षणं वक्तव्यम् । तथाभ्युपगमे च ‘ज्ञातसम्बन्धस्य' इत्यनेनान्वय-व्यतिरेकयोः संसूचनात् पक्षधर्मत्वस्य चाध्याहारात् 'त्रिरूपालिङ्गालिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम्' () इत्येतावदेवास्मदीयमनुमानलक्षणं भवद्भिरभ्युपगतं भवतीति सौगताः ।।
[ प्रमाणसङ्ख्या - तत्र सौगतमतम् ] ____ अप्रत्यक्षस्य चार्थस्य स्वसाध्येन धर्मिणा च सम्बद्धाद् अन्यतः सामान्याकारेण प्रतिपत्तेः यदप्रत्यक्षार्थविषयं प्रमाणं तदनुमानेऽन्तर्भूतमिति प्रत्यक्षानुमानलक्षणे द्वे एव प्रमाणे। तथाहि- न परोक्षोऽर्थः स्वत एव तदाकारोत्पत्त्या प्रतीयते प्रमाणेन तस्याऽपरोक्षत्वप्रसक्तेः । विकल्पमात्रस्य च स्वतन्त्रस्य राज्यादिविकल्पवदप्रमाणत्वात् तदप्रतिबद्धस्यावश्यंतया तदव्यभिचाराऽभावात्। न च स्वसाध्येन विनाभूतोऽर्थो गमकः अतिप्रसक्तेः, धर्मिसम्बन्धानपेक्षस्यापि गमकत्वे प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावात् सर्वत्र प्रतिपत्तिहेतुर्भवेत् । यच्चैवं- 10 विधार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनं प्रमाणं तदनुमानमेव, तस्यैवलक्षणत्वात्। तथा च प्रयोगः - यदप्रत्यक्ष प्रमाणं प्रमाण आवश्यक हैं। सार यह निकला कि इस प्रकार की आवश्यकता को मानने पर ही पूर्वप्रदर्शित युक्तियों से अपक्षधर्म हेतु की ज्ञापकता का निरसन संगत होगा। अत एव हेतु के लक्षण में रूपान्तर यानी पक्षधर्मत्वस्वरूप और भी एक अंग मानना पडेगा। इस स्थिति में शाबरभाष्य में जो ‘ज्ञातसम्बन्धवाले' ऐसा कहा है उस से हेतु के अन्वय-व्यतिरेक की सूचना एवं पक्षधर्मत्व का अध्याहार समझ लेना 15 होगा। फलतः आखरी निष्कर्ष यही निकलता है कि हमने (बौद्धोने) जो अनुमान लक्षण कहा था (न्या. बिं०२-३) 'तीन रूपवाले लिंग से लिंगी का भान अनुमान है' - इतना आपने (मीमांसक ने) भी स्वीकार लिया है। इस प्रकार बौद्धों की और से अनुमान के लक्षण की चर्चा समाप्त ।
[ प्रत्यक्ष/अनुमान दो ही प्रमाण - सौगतमत ] प्रत्यक्ष के अलावा और जितने भी प्रमाण हैं उन सभी में अनुमान की तरह एक सर्वसामान्य 20 तत्त्व यह है कि वहाँ सामान्यस्वरूप से परोक्ष अर्थ की प्रतीति अपने से अन्य साध्य एवं धर्मी (उपमानादि) के आलम्बन से होती है। अनुमान में भी ऐसा ही है, अत एव जितने भी अप्रत्यक्षार्थग्राहि प्रमाण हैं उन सभी का अन्तर्भाव अनुमान प्रमाण में हो जाता है। फलतः प्रमाण के दो ही भेद (प्रकार) सिद्ध होते हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान। कैसे यह देखिये - परोक्ष अर्थ अपने आप प्रमाण में स्व आकार का आधान कर के प्रतीतिप्राप्त हो ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि तब उस (अर्थ) की परोक्षता 25 का भंग होगा, अपरोक्षता प्रसक्त होगी। बौद्धमत में प्रत्यक्ष तो निर्विकल्प होता है जो अर्थ से उत्पन्न होने से अर्थप्रतिबद्ध होता है। सविकल्प ज्ञान सब अर्थ से उत्पन्न न होने के कारण अर्थप्रतिबद्ध (अर्थाकार) नहीं किन्तु अर्थनिरपेक्ष स्वतन्त्र (स्वच्छन्द) आकारवाले होते हैं इस लिये वे अप्रमाण ही होते हैं। जो अर्थ से अप्रतिबद्ध होते हैं वे अवश्य अर्थ के अव्यभिचार से शून्य होते हैं। अपने साध्य का विनाभावि (साध्यशून्य में रह जानेवाला) अर्थ कभी भी साध्य का गमक नहीं होता, गमक 30 मानने पर अतिप्रसंग होगा। तथा धर्मी के साथ सम्बन्ध न रखनेवाले अर्थ भी गमक नहीं होते, .. तत्र त्रिरूपाल्लिङ्गाद् यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानम् (न्यायबिन्दु. २-३)
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