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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ त्प्रणीतानुमानलक्षणानुयायि (३३४-४) न व्याख्यायते तदा प्रतिबन्धग्राहकप्रमाणाऽसंभवतः प्रदर्शितन्यायेन नानुमेय-प्रतिपत्त्यङ्गम् । अथानुयायितया, तदैतदेव लक्षणं शब्दान्यत्वेऽप्यभ्युपगतमिति न विप्रतिपत्तिः ।
[ शाबरभाष्यानुमानलक्षणसमीक्षा ] ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनादसंनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिरनुमानम् (शाबर-भाष्य १-१-५) इति शाबरमनुमानलक्षणम् । 5 अत्र च यदि दर्शनाऽदर्शननिबन्धनं सम्बन्धग्रहणमाश्रीयते तदा तत्पुत्रत्वादेरप्यनुमानत्वसंभवादतिव्याप्तिर्लक्षणदोषः ।
अथ न सहभावदर्शनमात्रात् सम्बन्धावगमा किन्तु विपर्यये हेतोबर्बाधकप्रमाणबलात्। न च तदत्रास्तीति नातिव्याप्तिः। ननु किं विपर्यये बाधकप्रमाणम् ? 'अदर्शनम्' इति चेत् ? स्वसम्बन्धिनोऽदर्शनस्यात्रापि सद्भावात् सर्वसम्बन्धिनोऽन्यत्राप्यसिद्धेः, न ह्यर्वाग्दृशा देशकालविप्रकृष्टा साध्यविकला हेतुरहितत्वेन
सकलार्था निश्चेतुं शक्याः। अथ कारण-व्यापकानुपलब्धि-विरुद्धविधीनामन्यतमद् बाधकं प्रमाणम् । तर्हि 10 कार्यकारण- व्याप्यव्यापकभावविरोधसिद्धौ प्रमाणतस्तत प्रवर्त्तते इति कार्यकारणभावादिकः सम्बन्धस्तदवगमनिमित्तं
'वह (अनुमान) लिङ्ग (और) लिङ्गीपूर्वक होता है' ऐसा अनुमान का लक्षण कहा है, वह भी यदि हमने प्रमाणवार्त्तिक (कारिका ३-१) में 'पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः।' ऐसे कहे गये लक्षण (३३४-१८) की व्याख्या के अनुसार ही- व्याख्यात न किया जाय तब तो पूर्वप्रदर्शित युक्तियों के
मुताबिक व्याप्तिग्राहक प्रमाण के असम्भव के कारण अनुमेय अर्थ के बोध में समर्थ नहीं हो सकेगा। 15 यदि हमारी उक्त व्याख्या के अनुसार ही उस का व्याख्यान अभिमत हो तब तो शब्दभेद के बावजूद भी हमारे पूर्वकथित लक्षण का ही स्वीकार हो गया, अतः उस में कोई विवाद नहीं रहता।
[शाबरभाष्योक्त ज्ञातसम्बन्धमूलक अनुमानव्याख्या की समीक्षा ] ____ शाबरभाष्य में अनुमान का लक्षण :- (जिन दोनों में व्याप्तिरूप) सम्बन्ध जिस का ज्ञात है उस के एक देश (व्याप्य) के दर्शन से असंनिकृष्ट (परोक्ष) अर्थ की बुद्धि यही अनुमान है। इस 20 की समीक्षा में बौद्ध कहते हैं – यदि यहाँ सम्बन्ध का ग्रहण सह दर्शन - अन्यत्र अदर्शन के आधार
पर ही माना जाय तो 'वह श्याम है क्योंकि उस का पुत्र है' यहाँ भी अनुमानत्व एवं असद्हेतु तत्पुत्रत्व में अतिव्याप्ति लक्षणदोष आयेगा। यदि कहें - ‘सहास्तित्व के दर्शनमात्र से ही सम्बन्धग्रहण नहीं मानते किन्तु विपर्यय में यानी साध्यशून्य में बाधकप्रमाण का आधार ले कर सम्बन्ध ग्रहण
करते हैं अतः बाधकप्रमाण के कारण सम्बन्धग्रहण के अभाव में तत्पुत्रत्व में अतिव्याप्ति नहीं होगी।' 25 - तो इस पर बौद्ध कहता है. यहाँ विपर्यय में कौनसा बाधक प्रमाण है ? यदि 'साध्यशन्य में
अदर्शन' मात्र बाधक कहा जाय तो वह (श्यामाभावदर्शन) तो स्व = तत्पुत्रत्व के सम्बन्धि अन्य पूर्वजात शिशुओं में विद्यमान है। भूत-भविष्य एवं अन्य देशीय सर्व अग्निविरह सम्बन्धि में तो धूमादि का अदर्शन असिद्ध है। छद्मस्थ (अर्वाग्दी) के लिये ऐसा निश्चय शक्य नहीं है कि साध्यशून्य समस्त
परोक्ष देश-काल हेतुशून्य हैं। यदि कहें कि – 'कारणानुपलब्धि, व्यापकानुपलब्धि और विरुद्धविधि इन 30 में से किसी भी बाधक प्रमाण से सम्बन्धग्रहण होगा' - तो ऐसा प्रमाण तब प्रवृत्त होगा जब कार्य
कारणभाव, व्याप्यव्यापकभाव एवं विरोध - तीन में से कोई भी सिद्ध रहेगा। फलित यह हुआ कि सम्बन्ध (व्याप्ति) ग्रहण में कार्यकारणभावादि सम्बन्ध एवं इस सम्बन्ध के बोध के लिये प्रत्यक्षादि
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