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खण्ड-४, गाथा-१
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तदुपन्याससाफल्यम्, तद्गुणत्वस्य समवायस्य वाऽध्यक्षप्रतिपत्तौ कदाचिदप्यप्रतिभासनात् । एतेन ‘गुणत्वयोगाद् रूपादयो गुणाः' इति निरस्तम् गुणत्वसमवायस्य व्यतिरेकिहेतो रूपादिषु गुणव्यवहारसाधकस्याऽसिद्धेः । यदपि इच्छादे: पारतन्त्र्यमात्रप्रतिपत्तौ गुणत्वं कार्यत्वं वा पूर्ववदित्यादित्रयाणामपि हेतूनां विभागेनोदाहरणप्रदर्शनम्, (३६४-३) तदप्यसंगतमेव, गुणत्व-कार्यत्वयोर्यथोक्तप्रकारेण पारतन्त्र्यप्रतिपत्ती हेतुत्वाऽसम्भवतः सर्वस्यानुपपत्तिकत्वाद् इत्यलमतिप्रसङ्गेन।
एतेन सांख्यपरिकल्पितमपि पूर्ववत् शेषवत् सामन्यतोदृष्टं चेति त्रिविधमनुमानं निरस्तम् न्यायस्य समानत्वात्। यदपि “तल्लिङ्ग-लिङ्गिपूर्वकम् (सांका०-५) इत्यनुमानलक्षणं तैरभ्यध्यायि तदपि यद्यस्महो गया। तथा आकाश में शब्द के प्रति समवायिकारणता निरस्त हो जाने से, शब्द में शब्दान्तर के प्रति असमवायिकारणतारूप हेतुत्व भी निरस्त हो जाता है। सन्तान की सिद्धि के लिये दूरस्थ शब्द के प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति का कथन भी अनुचित है क्योंकि सन्तान के विना भी दूरस्थ शब्दद्रव्य के कर्णसमीप आगमन 10 से उस की प्रत्यक्षता की संगति का प्रतिपादन किया जा चुका है।
यह जो कहा कि - इच्छादि में (३८०-२२) एकद्रव्यत्व एवं कर्मभिन्नत्व (हेतु) प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है, तब तो इच्छादि में गुणत्व के समवाय से गुणरूपता की भी सिद्धि प्रत्यक्ष से ही हो जायेगी, (क्योंकि आप के मत में एक आत्मद्रव्य में आश्रितत्व प्रत्यक्षगोचर है)। फिर अनुमान का प्रयास (इतनी लम्बी प्रक्रिया) सब निरर्थक ठहरा। यदि कहें कि – 'गुणत्व का इच्छादि में योग तो प्रत्यक्ष से सिद्ध 15 है किन्तु उस के बल पर इच्छादि में 'गुण' रूपता के व्यवहार के प्रवर्तन के लिये अनुमानप्रयास सफल रहेगा' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष बोध में न तो कभी इच्छादि का गुणत्व भासता है, न तो कभी समवाय भासता है। समवाय के निरस्त होने पर यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि 'रूपादि गुणत्व के योगसे 'गुण' स्वरूप हैं' क्योंकि रूपादि में 'गुण' व्यवहार प्रवृत्ति के लिये आशंकित साधक व्यतिरेकी हेतु गुणत्व का समवाय ही असिद्ध है।
यह भी जो कहा था – (३६४-२१) “इच्छादि में पारतन्त्र्यमात्र सिद्धि के लिये गुणत्व या कार्यत्व 'पूर्ववत्' अनुमान हुआ, उन्हीं हेतुओं से आश्रयान्तरबाध के द्वारा विशिष्टाश्रय का अनुमान वह शेषवत्, तथा अन्यधर्मी में प्रत्यक्ष किन्तु साध्यधर्मी में उस की अप्रत्यक्षता प्रयुक्त अनुमान - सामान्यतोदृष्ट - इस ढंग से जो तीन हेतुओं का विभागशः उदाहरण प्रदर्शित किया था” – वह सब असंगत है क्योंकि नैयायिककथित प्रक्रिया असिद्ध होने से इच्छादि में पारतन्त्र्य की सिद्धि करने में गुणत्व 25 या कार्यत्व हेतु सक्षम ही नहीं है। अतः नैयायिक कथित पूरा बयान युक्तिविमुक्त है। अधिक चर्चा से क्या लाभ ?!
[ सांख्यकल्पित पूर्ववत् आदि अनुमान का निषेध - बौद्ध ] जिन युक्तिओं से नैयायिक कथित, पूर्ववत् आदि का निरसन किया है उन युक्तियों से सांख्यकारिका में कहे गये पूर्ववत् शेषवत् सामन्यतोदृष्ट त्रिविध अनुमान भी निरस्त हो जाते हैं, क्योंकि वे सभी 30 युक्तियाँ यहाँ समानरूप से लागु होती है। तथा सांख्यकारिका (५) में जो ईश्वरकृष्ण ने (सांख्य विद्वानोंने) .. प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् । तल्लिङ्गलिङ्गिपूर्वकमाप्तश्रुतिराप्तवचनं तु।।५।। सांख्यकारिका ।
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