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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ वार्त्तिकादौ ग्रन्थगौरवभयाद् नेह प्रदर्श्यते विस्तरतः।
__ यदपि विषयतुल्यतया क्रियातुल्यत्वं वतेः प्रयोगनिबन्धनमभ्यधायि (३६१-१) तदपि प्रतिभासभेदस्य विषयभेदमन्तरेणानुपपद्यमानत्वप्रतिपादनात् प्रतिक्षिप्तम् । तन्न ‘पूर्ववत्' इति 'वति'प्रयोगाश्रयणेनापि व्याख्यानं
युक्तिसंगतम् । यदपि पूर्ववतः शेषवदनुमानस्य भेदप्रतिपादनाय ‘शेषवन्नाम परिशेषः' (३६९-९) इत्याद्यभिधानम्, 5 तदपि स्वप्रक्रियोपवर्णनमात्रम् । यतः इच्छादीनां गुणत्वसिद्धौ पारतन्त्र्यसिद्धेः शरीरादिषु प्रसक्तेषु प्रतिषेधे
सति परिशेषादात्मसिद्धिः। तच्च गुणत्वमिच्छादीनां द्रव्याश्रितत्वसिद्धौ सिध्यति, तच्च समवायाभावतोऽयुक्तमिति प्रतिपादितम्। यदपि 'सामान्यवत्त्वे सति अचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात् रसवत्' इत्यादि इच्छादीनां गुणत्वसिद्धावनुमानमुपन्यस्यते, तदपि न युक्तिक्षमम् रसादीनामपि गुणत्वासिद्धितो दृष्टान्तासिद्धेः । न च तेषामपि
गुणत्वसिद्धौ दृष्टान्तान्तरमस्ति, इच्छादीनां तदृष्टान्तत्वे इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। 10 यदपि- इच्छादयो गुणाः प्रतिषिध्यमानकर्मत्वे सत्येकद्रव्यत्वात् शब्दवत्-इत्यनुमानम्, तत्रापि दृष्टान्ता
ऽसिद्धिः । तथाहि- द्रव्यस्य द्वैविध्यं वैशिषिकैः प्रतिपादितम्- घटादि अनेकद्रव्यं द्रव्यम् अद्रव्यमाकाशादि । जिस प्रमाण से व्याप्ति का निश्चय किया जाता है वह भी प्रमाणवार्तिक आदि बौद्ध ग्रन्थों में स्पष्ट दिखाया है इसलिये ग्रन्थगौरवभय से यहाँ नहीं कहते हैं।
[ पूर्ववत्-शेषवत् आदि का निरसन ] 15 पहले जो नैयायिकने कहा था - (३६१-११) पूर्ववत् में ‘वत्' प्रयोग विषयतुल्यतामूलक क्रियातुल्यता
होने से अघटित नहीं है - वह भी इसलिये निरस्त है कि वहाँ विषयतुल्यता है नहीं विषयभेद है। विषयभेद के विना प्रत्यक्ष-अनमान में प्रतिभासभेद घट नहीं सकेगा। अतः 'वत' प्रयोग का आलम्बन ले कर 'पूर्ववत्' का व्याख्यान युक्तिसंगत नहीं है। उपरांत, पूर्ववत् अनुमान से शेषवत् का भेद करने
के लिये जो कहा था (३६१-३२) कि ‘शेषवत् यानी परिशेष' – वह भी अपनी काल्पनिक प्रक्रिया 20 का ही निरूपण मात्र है। आप की प्रक्रिया :- इच्छादि में प्रथम गुणत्व की सिद्धि, गुणत्वसिद्धि के
द्वारा इच्छादि में पारतन्त्र्यसिद्धि, शरीरादि में प्रसक्त पारतन्त्र्य का निषेध, तब परिशेष से आत्मा की सिद्धि। यह प्रक्रिया निर्मूल है क्योंकि इच्छादि में गुणत्व सिद्ध करने के लिये पहले तो इच्छादि में द्रव्याश्रितत्व सिद्ध करना चाहिये किन्तु पहले हमने कहा ही है कि समवाय जूठा होने से वह सिद्ध
हो नहीं सकता। इच्छादि में गुणत्व सिद्ध करने के लिये यह जो अनुमानप्रयोग किया जाता है कि 25 - ‘इच्छादि गुण है क्योंकि सामान्यवाले होने के साथ चाक्षुषप्रत्यक्षविषय नहीं है जैसे रस' – यह
अनुमान भी युक्तिसंगत नहीं है। कारण, दृष्टान्त ही असिद्ध है, रसादि में कहाँ गुणत्व सिद्ध है ? रसादि में गुणत्व सिद्धि के लिये और कोई दृष्टान्त भी नहीं है। इच्छादि को ही दृष्टान्त बनायेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष होगा। रसादि में गुणत्वसिद्धि का आधार इच्छादि, और इच्छादि में गुणत्वसिद्धि का आधार रसादि, तब एक भी सिद्ध नहीं हो सकता।
[ इच्छादि में एवं शब्द में गुणत्वानुमान का निरसन ] __ इच्छादि में गुणत्व का साधक यह जो अनुमान है कि - ‘इच्छादि गुण है क्योंकि कर्मभिन्न होने के साथ एकद्रव्याश्रित हैं जैसे शब्द' - यहाँ भी दृष्टान्त में गुणत्व असिद्ध है। कैसे ? देखो -
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