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खण्ड-४, गाथा-१
३७७ अथ महानसस्थो धूमो न तत्स्थेन पावकेन व्याप्तः। एवमेतत् किन्तु 'साध्यव्याप्तो हेतुः' इत्येतावन्मात्रे लक्षणे यत्रैव साधनधर्मस्तत्रैव साध्यधर्मानुमानमिति न प्राप्येत- इत्यन्यत्रापि साध्यानुमानाशङ्का भवेत्, ततः तन्निवृत्त्यर्थं पृथक् पक्षधर्मवचनम्।
यदा च भूतलादेरुपलब्धिजननयोग्यताऽनुपलब्धिः तदाऽसौ भूतलादिस्वभावेति कथमनुपलब्धेरपक्षधर्मत्वम् ? पुरुषधर्मरूपायास्त्वनुपलब्धेरन्यभूतलादिकार्यत्वमेव तद्धर्मत्वम् परमार्थतस्तस्याः तदायत्तत्वात्। 5 कृतकत्वादेस्तु शब्दादिधर्मत्वम् परमार्थत एकत्वेऽपि भेदान्तरप्रतिक्षेपाद् धर्मभेदव्यवस्थापनात्। धूमादेरपि धर्मस्य प्रदेशादिधर्मत्वम् तत्कार्यतया तदायत्तत्वात्। तेषां च विकल्पेन तत्सम्बन्धिस्वरूपमेव 'पक्षस्यायं धर्मः' इति व्यवस्थाप्यते। तन्नास्मन्मते सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहणेऽनुमानानुत्थानम् । नापि हेतोः पक्षधर्मत्वाभिधानं व्यर्थम् यथा च पक्षधर्मतानिश्चयो व्याप्तिनिश्चयश्च यतश्च प्रमाणतः सम्भवति तथा प्रदर्शितमेव प्रमाणमें देखा हुआ धूम जो कि अग्निव्याप्य है वह अपक्षभूत महासमुद्र में भी अग्नि का अनुमान कर 10 बैठेगा। यदि कहें कि - ‘भोजनगृह स्थित धूम समुद्रगत वडवानल से व्याप्त नहीं होता अतः उक्त विपदा नहीं होगी।' – तो यह मान लिया किन्तु विशेष ज्ञातव्य है कि यदि ‘हेतु साध्य का व्याप्य होता है' इतना हि यदि हेतु का लक्षण मानेंगे तो इस से यह स्पष्ट नहीं होगा कि साधनधर्म (हेतु) जहाँ होगा, वहाँ ही साध्यधर्म का अनुमान होगा। स्पष्टता के विरह में तब साधनधर्मशून्य स्थल में भी साध्य के अनुमान होने की शंका बनी ही रहेगी। उस के निवारण के लिये पक्षधर्म का पृथग् 15 निर्देश अनिवार्य है। _ अनुपलब्धि हेतु में जो आपने असंगति दिखाई थी (३७३-३) वह भी अनुचित है। अनुपलब्धि का मतलब है कि 'यदि भूतल में वस्तु रहती तो भूतल में उपलब्ध होती' इस प्रकार की वस्तुउपलब्धिजननयोग्यता जो कि भूतल का धर्म है - यह योग्यता भूतलादि स्वभावरूप ही है। ऐसी अनुपलब्धि पक्षधर्म कैसे नहीं बनेगी ? यदि आप अनुपलब्धि को यानी अन्य वस्तु की भूतल में 20 उपलब्धि को पुरुष का धर्म मानते हैं तो वह भी आखिर विवक्षित वस्तु शून्य जो अन्य भूतलादि है उस का कार्य ही है। परमार्थतः देखा जाय तो वैसी अनुपलब्धि अन्य भूतलादि को अधीन होने से, उसे भूतल का धर्म कहने में कोई हरकत नहीं है।
शब्द और कृतकत्व वास्तव में तो एक ही है फिर भी शब्द पक्ष और कृतकत्व उस का धर्म है जो अनित्यत्व साध्य की सिद्धि का हेतु बनता है। इस प्रकार अन्य भेद (धर्म) को दूर रख 25 कर कृतकत्व धर्म विशेष का हेतुरूप में प्रस्तुतीकरण है। अग्नि का धूमादि कार्य भी अपने प्रदेशादि (पक्ष) का धर्म है क्योंकि अग्नि का कार्य होते हुए भी वह उस प्रदेश को अधीन है क्योंकि उस की उत्पत्ति वहाँ हुई है। इस प्रकार, हेतुओं में अपने अपने पक्ष का संसर्गिस्वरूप ही 'यह पक्ष का धर्म है' इस निरूपण से निश्चित किया जाता है वह भी विकल्प के द्वारा, प्रत्यक्ष का तो ऐसा व्यापार नहीं। सारांश, हमारे बौद्ध मत में सर्वोपसंहार से व्याप्ति निश्चय करने पर अनुमान के अनुत्थान 30 का कोई दोष नहीं रहता। अतः 'प्रत्येक हेतु किसी तरह पक्षधर्म भले हो किन्तु अनुमान प्रयोग में उस का कथन व्यर्थ है' - यह कथन भी निरस्त है। उपरांत, जिस प्रमाण से पक्षधर्मता का और
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