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________________ ३७६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ __ अथवाऽव्यभिचारनिमित्त एव धर्मो हेतुर्युक्तो धूमस्याग्निकार्यत्ववत्, ब्राह्मणमातापितृजन्यत्वं च ब्राह्मण्यनिमित्तं शिशोरिति तदेव हेतुर्युक्तोऽन्यस्य तत्कल्पनायां क्लेशः स्यादेव। एवं चन्द्रोदयात् समुद्रवृद्ध्यनुमानं किमिति तदैव, न पूर्वं नापि पश्चात् ? 'तदैव व्याप्तिग्रहणाद्' इति चेत् ? तर्हि साध्य-साधनयोः तत्काल सम्बन्धित्वमेवेति स एव कालो धर्मी तत्सम्बन्धिनश्चन्द्रोदयात् तत्रैव साध्यानुमानमिति कथमत्राप्यपक्षधर्मत्वम् ? 5 कालानभ्युपगमे च नैतदनुमानं व्यभिचारात्। न च सौगतैः कालानभ्युपगमात् नास्यानुमानस्य सम्भवः । पूर्वाणादिप्रत्ययविषयस्य महाभूतविशेषस्य कालशब्दवाच्यस्याभ्युपगमात् । एवं विशिष्टपिपीलिकोत्सर्पणादेरपि पक्षधर्मता योज्या। नन्वेवमपि तदंशव्याप्तिवचनेनैव गतत्वात् पक्षधर्म इति पृथग् लक्षणं न वक्तव्यम् । न, अपक्षधर्मस्यापि साध्यव्याप्तस्य हेतुत्वनिराकरणार्थत्वात् तस्य, अन्यथा महानसोपलब्धधूमाद् महार्णवे पावकानुमानं प्रसज्येत । 10 की कल्पना क्लिष्ट नहीं है। [ पक्षधर्मता के बल से धूम में अग्निकार्यत्व का अव्यभिचार ] अथवा हेतु के लिये कह सकते हैं कि अव्यभिचार का निमित्तभूत जो धर्म हो वही हेतु बन सकता है, अग्निकार्यत्व धर्म धूम में कभी भी व्यभिचारी नहीं होता। (इस लिये 'धूमः अग्निमत् तत्कार्यत्वात्' ऐसा अनुमान पक्षधर्मता के बल पर ही होगा।) बच्चे में ब्राह्मण्य के अव्यभिचार का 15 निमित्त ब्राह्मणमातापितृजन्यत्व है, अतः उस बच्चे में ब्राह्मणमातापितृजन्यत्व हेतु पक्षधर्म बन कर ब्राह्मण्य का बच्चे में अनुमान करा सकेगा। पक्षधर्म के अलावा और किसी को हेतु मानने पर तो क्लेश होगा ही। जब यह निश्चित हुआ कि अव्यभिचारनिमित्तभूत धर्म ही हेतु बन सकता है, तो प्रश्न सहज होगा कि चन्द्रोदय से समुद्रवृद्धि का अनुमान चन्द्रोदय की वेला में ही होता है, पहले या बाद में क्यों नहीं होता ? उत्तर में यदि कहें कि 'व्याप्ति ग्रह तभी होता है' तब तो फलित होगा 20 कि साध्य (समुद्रवृद्धि) और साधन (चन्द्रोदय) दोनों में एककालसम्बन्धिता विशेष है। अत एव वहाँ उसी काल को धर्मी मानना पडेगा. तत्सम्बन्धि चन्द्रोदय वह पक्ष धर्म यानी हेतु बनेगा और उसी काल धर्मी में साध्यधर्म समुद्रवृद्धि का अनुमान होगा - तो यहाँ पक्षधर्मता का निषेध कहाँ हुआ ? हाँ, काल का अस्तित्व स्वीकार न हो तब तो पक्षधर्म न बनने पर व्यभिचार के कारण उक्त अनुमान नहीं हो सकता। ऐसा बोलना मत कि 'बौद्ध तो काल को नहीं मानते इस लिये बौद्ध मत में उक्त 25 अनुमान संभव नहीं' - हमारे बौद्धमत में कालशब्द का वाच्यार्थ है पूर्वाह्नादिप्रतीति का विषयभूत एक प्रकार का महाभूत । उक्त विवरण के मुताबिक चींटीयों के विशिष्ट स्थानपरिवर्तन की पक्षधर्मता की उपपत्ति भी स्वयं समझ लेना। [ सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रह से अनुमान तथा पक्षधर्मता ] ___पहले जो कहा था (३७२-११) - सर्वोपसंहार से व्याप्तिग्रहण करने पर धर्मी अंश (साध्य) 30 के साथ भी व्याप्ति ग्रहण के वचन (निरूपण) से ही पृथग् पक्षधर्म को हेतु का लक्षण मानने की जरूर नहीं है - वह तो बोलना ही मत। पक्षधर्म यह हेतु का पृथग् लक्षण जरूरी है अन्यथा साध्य से व्याप्त हो किन्तु - पक्षधर्मरूप न हो वह भी हेतु बन कर बैठ जायेगा। जैसे कि भोजनगृह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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