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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३७३ 15 न वक्तव्यं भवेत्। उक्तं च जैनैः ( ) - अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। अनुपलब्धेश्च पक्षधर्मत्वं नोपपत्तिमत् अन्योपलब्धिस्वभावायाः तस्याः पुरुषधर्मत्वात् । कार्यहेतोश्च स्वातन्त्र्येण धर्म्यनपेक्षत्वात् कुतः पक्षधर्मता ? स्वभावहेतोः पुनर्मिरूपत्वाद् भेदनिबन्धना पक्षधर्मता दूरोत्सारितैव। न च कल्पितस्य पक्षधर्मस्य कार्य-स्वभावहेतुत्वं साध्यव्याप्तिश्चोपपत्तिमती। ततो न 5 पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणं भवदभिप्रायेण युक्तिसंगतम्।। [ सकलोपसंहारेण व्याप्तिग्रह अनुमानप्रामाण्यं च ] असदेतत्- यतो यद्यपि सर्वोपसंहारेण साध्य-साधनयोर्व्याप्तिप्रतिपत्तिः, तथापि न तत्प्रतिपत्तिमात्रात् के साथ व्याप्ति के बल से ही अपने साध्य का प्रकाशन करता है, न कि पक्ष में उस की सत्ता (यानी पक्षधर्मता) के बल पर। अन्यथा, घटाधिकरणभूत कुलाल की शाला में हरहमेश गर्दभ की सत्ता होने 10 से गर्दभ भी घट का (साध्य का) प्रकाशक बन बैठेगा। फलितार्थ :- धर्मरूप अंश के साथ (अनुमान के) पहले व्याप्तिग्रह अनिवार्य हुआ। तब तो साध्य का भी ग्रहण उस में हो गया, फिर उसकी पक्षधर्मता से क्या निसबत ? अत एव हेतु के लक्षण में पक्षधर्मता का प्रवेश जरूरी नहीं है। जैन विद्वानों ने (पात्रकेसरी या पात्रस्वामी ने) कहा है - जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ तीन (पक्षसत्त्वादि) होवे तो भी क्या ? जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ भी तीन हो तो क्या ? अनपलब्धि (हेत) तो पक्ष का धर्म हो नहीं सकती क्योंकि वह तो पुरुष(आत्म)धर्मरूप होती है। कारण, वह किसी न किसी अन्य (अभावादि) अर्थ की उपलब्धिरूप ही होती है। जैसे अग्नि की अनुपलब्धि अग्नि भिन्न भूतलादि की अथवा अग्नि के अभाव की उपलब्धिरूप ही है। यहाँ पर्वत में धूम नहीं है क्योंकि अग्नि की अनुपलब्धि है, इस प्रयोग में अग्नि की अनुपलब्धि पर्वत की अथवा अग्नि के अभाव की उपलब्धि स्वरूप ही है जो कि ज्ञानात्मक होने से आत्मधर्म है, पक्ष (पर्वत) 20 का धर्म नहीं। कार्य हेतु को कारणविधया धर्मीसम्बन्ध रहता है, स्वतन्त्ररूप से धर्मी की सापेक्षता नहीं होती, फिर पक्षधर्मता की बात ही कहाँ ? स्वभावहेतु में भी वह नहीं घट सकती क्योंकि पक्ष और धर्म भिन्न होते हैं, यानी पक्षधर्मता भेदमूलक होती है। यहाँ स्वभाव हेतु में तो धर्मी और उस के स्वभावभूत हेतु में भेद ही नहीं है। फलतः स्वभाव हेतु की पक्षधर्मता दूरापास्त हो जाती है। 25 जब वास्तविक पक्षधर्मता नहीं है तब न तो कल्पित पक्षधर्म का कार्यहेतुत्व या स्वभावहेतुत्व घट सकता है न तो कल्पित पक्षधर्म में साध्य के साथ व्याप्ति भी घट सकती है। फलितार्थ यह है कि पक्षधर्मत्व हेतु के लक्षणान्तर्गत नहीं हो सकता। [ सकलोपसंहारेण व्याप्तिग्रह और अनुमानप्रामाण्य ] उत्तर :- उक्त कथन गलत है। कारण :- साध्य-साधन की व्याप्ति का बोध सर्वोपसंहार से होता 30 है यह सत्य है किन्तु इतने बोधमात्र से 'अब यहाँ साध्यधर्मी में साध्यधर्म है' ऐसा विशिष्ट बोध A. अयं श्लोको (जैन)न्यायविनिश्चयग्रन्थे पृ.१७७ मध्ये का०१२४ रूपो द्रष्टव्यः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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