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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ ३६९ वाच्यं ये एवं भवन्ति, नास्माभिः, वयं केवलं द्रष्टार इति वक्तव्यम्; यत एवमभ्युपगमे आकस्मिक एव वस्तूनां स स्वभावो भवेत्, तथा च न कस्यचिदसौ न स्यात्, न ह्यहेतोर्देशकालनियमो युक्तः । तद्धि किंचित् क्वचित् उपलीयेत न वा यस्य किञ्चिद् यत्रायत्तमनायत्तं वा, अन्यथेष्टदेशकालद्रव्यवदन्यदेशादिभावः केन वार्येत विशेषाभावात् ? ततो येनाऽविनाभूतं यद् दृश्यते तेन तस्य तत्त्वचिन्तकैरव्यभिचारनिबन्धनं वाच्यम् न पुनः पादप्रसारिका 5 विधेया । तच्च यथोक्तादन्यदव्यभिचारनिबन्धनं नोपपत्तिमत् । न च तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धमन्तरेण पक्षधर्मताऽपि हेतोः संभवति संयोग - समवायादिलक्षणस्य सम्बन्धस्य प्रागेव निरस्तत्वात् । एकार्थसमवायित्वस्य च समवायाभावे दुरापास्तत्वात् विशेषण-विशेष्यभावस्य च सम्बन्धस्य संयोगाद्यन्तरेणाऽसंभवात् । न चानवगतपक्षधर्मत्वादेर्हेतोर्भवद्भिः गमकत्वमभ्युपगम्यते । एकसामग्र्याधीनतालक्षणस्तु प्रतिबन्धः कार्यअपने साध्यके साथ ही लिंग का अविनाभाव होता है न कि सभी अन्य वस्तु के साथ ? क्या करे ! 10 उत्तर तो वस्तु के उन स्वभावों को देना होता है, जो वस्तुस्वभाव ही ऐसे होते हैं, हमें कोई उत्तर देना नहीं है। हम तो वस्तु के तथास्वभाव के ज्ञाता दृष्टा हैं । ( मतलब, वस्तु का स्वभाव ऐसा होता है कि तादात्म्य - तदुत्पत्ति के विना भी किसी का किसी के साथ अविनाभाव होता है। उत्तर :- नहीं, क्योंकि ऐसे आप के कथन अनुसार तो वस्तु मात्र में आकस्मिक ही (अकारण ही) तथास्वभाव मानने की आपत्ति होगी। किसी भी वस्तु में अमुक स्वभाव नहीं है ऐसा नहीं कहा 15 जा सकेगा । वस्तुमात्र निर्हेतुक उत्पन्न नहीं होगी। निर्हेतुक वस्तु (धूम) नियत देश - काल (अग्निदेशकाल) में ही उत्पन्न हो ऐसा नियम भी नहीं रहेगा। वास्तविकता तो यह है कि कोई चीज नियत देश-काल में आविर्भूत-तिरोभूत हो या न हो उस का बीज यह होता है कि वह वस्तु उस देशकाल से आयत्त (अधीन ) या अनायत्त ( अनधीन) होनी चाहिये । अन्यथा वस्त्रादि की उत्पत्ति इष्ट तन्तु के देश-काल में इष्ट उपादान तन्तु द्रव्य में ही होती है उस के बदले भिन्न देश-काल द्रव्यों 20 में होने लगेगी कौन उस को रोकेगा जब कि आकस्मिक वस्तु उत्पत्ति को कोई देश-काल- द्रव्य का बन्धन विशेष ही नहीं है। ― - तादात्म्य - तदुत्पत्ति के विना अव्यभिचार नहीं ] यदि ऐसी अराजकता इष्ट नहीं है तो फिर तत्त्वचिन्तकों को चाहिये कि वे स्पष्टता करें कि जाना जो जिस का अविनाभूत दिखाई देता है उस के साथ इस के अव्यभिचार का मूल क्या है ? 25 ऐसी स्पष्टता करने के बजाय पैर लम्बे कर के बैठ जाना, यानी स्पष्टता करने की जिम्मेदारी चुक यह ठीक नहीं है । स्पष्टता करने के लिये सोचेंगे तो तुरन्त पता चलेगा कि तादात्म्य और तदुत्पत्ति के विना और कोई अव्यभिचार का मूल युक्तियुक्त नहीं है । अरे, तादात्म्य - तदुत्पत्ति के विना तो हेतु में पक्षधर्मता भी नहीं घटेगी। संयोग - समवायादिरूप सम्बन्ध तो पहले ही निरस्त हो चुका है अतः पक्षधर्मता के लिये उन की आशा व्यर्थ है। एकार्थसमवायिता ( रूप-रस की) भी यहाँ नहीं 30 घट सकती क्योंकि समवाय कोई पदार्थ नहीं है । यदि ( हेतु- पक्ष का ) सिर्फ विशेषण - विशेष्यभाव को ही सम्बन्ध बना ले तो यह भी संयोगादि के विना सम्भव रहित । अज्ञात पक्षधर्मता आदि वाले - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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