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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रत्यक्षतेत्युक्तं प्राग्। यदपि 'यो हि भविष्यदृष्ट्यव्यभिचारिणमुन्नतत्वादिविशेषमवगन्तुं समर्थः स एव तस्मात् तामनुमिनोति' इत्युक्तम् (३५१-७) तदप्यसंगतम् तदनुमितेः प्रागेव कार्यस्य प्रत्यक्षतया तदनुमितेर्वैयर्थ्यप्रसक्तेरित्युक्तत्वात् । यदपि 'गम्भीरध्वानवत्त्वे सति' इत्याधुन्नतत्वादेविशेषणम् (३५१-९) तदप्येतेनैव निरस्तम्, अनुमेयप्रतिपत्तौ तस्याऽनुपयोगित्वात् अध्यक्षत एव तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य सिद्धेः। यदपि शेषवतः उदाहरणं प्रतिपादितम् तत्र नदीविशेषो धर्मी अवयविरूपोऽसिद्धः, उभयतटव्यापित्वादिकस्तु संयोगविशेषत्वात् साधनधर्मोऽसिद्धः संयोगस्याऽसत्त्वेन प्रतिपादनात् । __यदपि वृष्टिकार्यत्वं साधनधर्मस्य परम्परया प्रक्रियोपवर्णनेन प्रदर्शितम् (३५७-३) तदपि प्रक्रियाया असिद्धत्वाद् निरस्तम् । ‘अकार्य-कारणभूतेन लिङ्गेन यत्र लिङ्गिनोऽवगमस्तत् सामान्यतोदृष्टम्'- (३५८10 १) इति यदभिधानम् तदप्यसङ्गतम् अकार्यकारणभूतस्याऽस्वभावभूतस्य च लिङ्गस्य गमकत्वेऽविनाभावनिमित्तस्य तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धस्याभावेऽपि गमकत्वाभ्युपगमात् सर्वस्य सर्वं प्रति गमकत्वोपपत्तेः। न चाऽसत्यपि जन्यजनकभावे तादात्म्ये वा स्वसाध्येनैव लिङगस्याविनाभावो नान्येन - इत्यत्र वस्तस्वभावैरुत्तरं का ही प्रत्यक्ष हो जाने से अनुमान व्यर्थ बन जायेगा यह पहले कह दिया है। [ उन्नतत्वादिविशेषज्ञानी को भाविवृष्टिअनुमान असंगत ] यह जो कहा था (३५१-२९) 'जो भाविवृष्टिकार्य के अव्यभिचारि उन्नतत्वादि विशेष को जान पायेगा वह उस विशेष के द्वारा भाविवृष्टि का अनुमान करेगा।' – वह भी असंगत है, क्योंकि वैसा अव्यभिचारित्व का ज्ञान कार्य को देखने के पहले सम्भव नहीं, कार्य देखने के बाद होगा तो अनुमान व्यर्थ, क्योंकि कार्य पहले ही प्रत्यक्ष हो चुका है। एवं (३५२-१०) उन्नतत्वादि का विशेषण गम्भीरध्वनियुक्तत्व कहा है वह भी उपरोक्त युक्ति से ही निरस्त हो जाता है, क्योंकि अनुमेय अर्थ के अनुमान में वह 20 निरुपयोगी है, क्योंकि अनुमानबोध्य अर्थ तो व्याप्तिग्रहण काल में प्रत्यक्ष से ही सिद्ध हो गया है। एवं शेषवत् का जो उदाहरण (नदी, उपरिवृष्टिमद्देशसम्बन्ध, उभयतटव्यापिता इत्यादि (पृ.३५७-९) कहा था वहाँ भी न तो अवयवीरूप नदी विशेष धर्मी सिद्ध है, न तो संयोगविशेषरूप उभयतटव्यापित्वादि साधनधर्म सिद्ध है, क्योंकि हमने कहा है कि संयोग ही असिद्ध है, युक्तिसंगत नहीं है। [ प्रक्रियावर्णन एवं अकार्य-कारणभूत लिंग की निःसारता ] 25 यह जो कहा था (३५७-२०) - साधनधर्म अभयतटसंयोग वृष्टि का कार्य है, साक्षात् नहीं किन्तु परम्परा से, वहाँ जो आपने प्रक्रिया का वर्णन किया था, वह प्रक्रिया ही असिद्ध है इस लिये उभयतटसंयोग वृष्टिकार्य आदि निरस्त हो जाता है। “न कारण हो न कार्य का ऐसे लिङ्ग से होनेवाला लिङ्गि का भान- वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान है” – ऐसा जो कहा था (३५८-१०) वह भी असंगत है। जो लिङ्ग न कारण है, न कार्य है, न स्वभावभूत है - उस को यदि गमक माना जाय, यह भी इस 30 लिये कि अविनाभाव का मूल जो तादात्म्य और तदुत्पत्तिरूप सम्बन्ध है वह न होने पर भी आप मानते हैं कि लिंग गमक होता है – तब तो वस्तुमात्र को अन्य सभी वस्तु का गमक मान लेना पडेगा। शंका :- ऐसा क्यों ? जन्य-जनक भाव न होने पर भी एवं तादात्म्य के न होने पर भी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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