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________________ खण्ड-४, गाथा-१ तत्फलस्यैव प्रत्यक्षप्रमाणत्वेन व्यवस्थापितत्वात् अबोधरूपस्य प्रमाणत्वनिषेधात् । यदपि (३४६-७) 'त्रिविधग्रहणमनुमानविभागार्थम् पूर्ववदादिग्रहणं च विभागविषयज्ञापनार्थम्' इत्युक्तम् (३४८-४) तदप्यसारम् कारणादप्रतिबद्धसामर्थ्यात् प्रदर्शितन्यायेन कार्यानुमाने कार्याध्यक्षतादोषस्याऽविचलितरूपत्वात्। या च 'अनुत्पन्नावयवस्यान्त्यतन्तोर्यदा क्रियातो विभाग'... (३५२-४) इत्यादिप्रक्रियोपवर्णिता साऽपि प्रमाणबाधितत्वादनुद्घोष्या। यथा च क्रिया-विभागादीनां प्रमाणबाधितत्वं तथा प्राक् प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते 5 (पंचमखण्डे) च यथावसरम्। ___ यदपि ‘मेघानां भविष्यदृष्टिकार्यविशेषणविशिष्टत्वमुन्नतत्वादिना धर्मेण तद्गतेन साध्यते' (३५०५) इत्युक्तम्, तदप्यसंगतम्, अस्वसंविदितविज्ञानाऽभ्युपगमवादिनां प्रदर्शितन्यायेन धर्माद्यसिद्धेरवयविसंयोगविशेषणविशेष्यभावादीनां च पराभ्युपगमेनासिद्धेहेतोराश्रय-स्वरूप-दृष्टान्तासिद्धिदोषा वाच्या। न च कार्याभावात् कारणमात्रस्याभावसिद्धिरिति संदिग्धव्यतिरेको हेतुः, अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य कारणविशेषस्याभाव- 10 सिद्धावपि नाऽप्रतिबद्धसामर्थ्यत्वं कारणस्योन्नतत्वादिधर्मविशिष्टस्य ज्ञातुं शक्यम् ज्ञप्तौ वा कार्यस्यैव तदा की लगायी है (३४१-१) वह भी असंगत है क्योंकि प्रत्यक्ष (इन्द्रिय) के फल में वास्तविक प्रत्यक्षत्व की स्थापना पहले की जा चुकी है, अबोधस्वरूप इन्द्रिय में प्रमाणत्व की कल्पना निरस्त हो चुकी है। यह जो कहा था - 'त्रिविध' पद अनुमान के विभाग के लिये और 'पूर्ववत्' आदि का निरूपण विभाग के विषयों को दर्शाने के लिये कहा है (३४८-३०) - वह भी तुच्छ है, क्योंकि पहले दर्शाये 15 गये न्याय से प्रतिबन्धविकलसामर्थ्यवाले कारण से कार्य के अनुमान को मानने पर कार्यप्रत्यक्ष हो जाने की विपदा अचल रहेगी। (पहले यह कहा था कि अप्रतिबद्धसामर्थ्यवाले कारण से साध्य करेंगे तो तथाविधकारण के दर्शनक्षण में ही कार्य उत्पन्न हो जाने से अग्रिमक्षण में तुरंत उस का प्रत्यक्ष हो जाने से प्रतिबन्धादि का अनुस्मरण व्यर्थ हो जायेगा।) तथा यह जो प्रक्रिया कही गयी (३५२-२९) अवयवों में क्रिया अनुत्पन्न है ऐसे अन्तिम तन्तु का जब क्रिया से विभाग होगा...इत्यादि, 20 वह प्रक्रिया भी उद्घोषणाअर्ह नहीं है क्योंकि प्रमाणबाधित है। क्रिया-विभाग आदि कैसे प्रमाणबाधित है यह पहले कहा जा चुका है, आगे भी (पंचम खण्ड में) यथावसर कहा जायेगा। [ मेघ के यानी कारण के एक धर्म से अपरधर्मसिद्धि सदोष ] यह जो नैयायिकने कहा है - (३५०-२३) 'मेघों के स्वगत उन्नतत्वादि धर्म के बल पर मेघों में भाविवृष्टिउत्पादकत्वरूप विशेषणविशिष्टता सिद्ध करने पर आश्रयासिद्धि आदि दोष नहीं है' - 25 वह भी असंगत है क्योंकि नैयायिक जब तक ज्ञान को स्वप्रकाश नहीं मानते तब तक पूर्वोक्त न्याय से धर्म और धर्मी सब असिद्ध है। एवं अवयवी भी (मेघादि) सिद्ध न होने से, उन के संयोग, विशेषण-विशेष्यभाव इत्यादि सब उसके (नैयायिक के) मतानुसार सिद्ध न होने से, नैयायिक प्रोक्त हेतुओं में आश्रयासिद्धि, स्वरूपासिद्धि, दृष्टान्तासिद्धि दोष कह देना होगा। यह भी कहाँ सिद्ध है कि कार्य न होने पर कारणमात्र का (समस्त कारणों का) अभाव होवे ही। अत एव हेतु में व्यतिरेक 30 सिद्ध नहीं है संदिग्ध है। यद्यपि कार्य के विरह में अप्रतिबद्ध (अनिरुद्ध) सामर्थ्यवाले कारणविशेष का विरह सिद्ध जरूर हो सकता है, किन्तु प्रस्तुत में उन्नतत्वादिधर्मविशिष्ट मेघादि कारण में अनिरुद्धसामर्थ्य का ज्ञान शक्य नहीं है। कदाचित् कार्य के देखने से वैसा सामर्थ्य का ज्ञान करेंगे तब तक तो कार्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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