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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ __ प्रथमसूत्रव्याख्याने तु सर्वदोषाभावः, प्रक्रान्तस्याऽविरोधिनः सर्वस्याभिसम्बन्धात् । त्रिविधग्रहणं तत्र विभागार्थमित्युक्तम् । पूर्ववदादिग्रहणमपि स्वभावादित्रैविध्यप्रतिषेधेन पूर्ववदादिष्वेव नियमज्ञापनार्थम् । पूर्ववदादीनां तु द्वितीयसूत्रे यद् व्याख्यानं तदेवेहापि द्रष्टव्यम्। विशेषस्तु तत्रानुमानलक्षणोपयोगित्वमिह तु त्रिविधभागेन विभज्यमानस्य स्वरूपदर्शनार्थम्। अनुमानस्य च त्रैविध्यं कारणादित्रैविध्यादेवेति। [ नैयायिकप्रदर्शितानुमानलक्षणस्य प्रतिषेधः ] कथं पुनः सौगतप्रणीतलक्षणादस्य प्रतिक्षेपः ? उच्यते, तत्पूर्वकमिति प्रत्यक्षप्रमाणफलपूर्वकं यतो भवति तदनुमानम् इति प्रथमसूत्रव्याख्यानमसंगतमेव, परोक्तलक्षणलक्षितस्य प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वेनाऽसिद्धेः तत्पूर्वकत्वस्यानुमानलक्षणस्याऽसम्भवात्। तदसंभवे च स्मृत्यादिजनकव्यवच्छेदार्थं विशेषणकलापाध्याहारो ऽप्यसंगतः एव। यदपि पूर्वशब्दस्य लुप्तस्याऽनिर्देशे प्रत्यक्षफलेऽनुमानत्वप्रसक्तिप्रेरणम् तदप्यसंगतम् 10 [प्रथमव्याख्यान सर्वदोषविमुक्त ] प्रथम सूत्रव्याख्यान में उपरोक्त कोई दोष नहीं है। अविरुद्ध प्रकृत उपयोगि सब कुछ इस में जुडा हुआ है। त्रिविधपदप्रयोग तो वहाँ अनुमान के विभाग का सूचन है। पूर्ववत्-शेषवत् आदि तीन प्रकार के उल्लेख भी बौद्धाभिमत स्वभाव-कार्यादि तीन अनुमानों का प्रतिषेध करने हेतु है। इस से यह अवधारण किया है कि वे तीन भेद पूर्ववत् आदि ही हैं। (न कि स्वभावादि)। प्रथमव्याख्यान 15 में पूर्ववत् आदि की व्याख्या दूसरे सूत्रव्याख्यान से भिन्न नहीं है। फर्क तो इतना रहेगा कि द्वितीय सूत्रव्याख्यान में 'पूर्ववत्' आदि पद अनुमान के लक्षण में उपयोगी बनते हैं जब कि प्रथमसूत्रव्याख्यान में वे लक्षण के लिये उपयोगि नहीं होंगे किन्तु तीन खंडो में विभाजित होने वाले अनुमानों के स्वरूप को समझाने के लिये प्रस्तुत बनेंगे। अनुमान के तीन प्रकार (पूर्ववत् आदि) का मूल तो वही है, कारण, कार्य एवं सामान्य ये तीन । 20 (संदर्भ :- पूर्वग्रन्थ (पृ०३४० पं०६ तथा पृ०३४०-२६) में बौद्ध मतवादी ने कहा था कि 'चार्वाकमत के प्रतिक्षेप द्वारा, नैयायिकों ने जो अनुमान लक्षण (न्या०सू०१-१-५) कहा है इस का भी प्रतिषेध हो जाता है' - इस संदर्भ में बीच में यहाँ विस्तार से न्यायमतानुसार अनुमानलक्षण की चर्चा हुई। अब नैयायिक के इस अनुमानलक्षण का प्रतिषेध बौद्ध दिखायेंगे।) [प्रथमव्याख्यान असंगत-बौद्ध ] 25 प्रश्न :- बौद्धदर्शन के अनुमान लक्षण के द्वारा न्यायदर्शन के अनुमानलक्षण का प्रतिषेध कैसे हो गया ? उत्तर :- प्रथमसूत्रव्याख्यान में, तत्पूर्वकम् यानी प्रत्यक्षप्रमाणफलपूर्वक जिस (हेतु) से होता है वह अनुमान है - ऐसा जो कहा है वह गलत है। कारण, न्यायदर्शनने जो अपनी ओर से प्रत्यक्ष का लक्षण कहा है वह वास्तव में प्रमाणतया असिद्ध है अत एव तथाविध प्रत्यक्षपूर्वकत्व अनुमान का 30 लक्षण कैसे घट सकता है ? जब प्रथमसूत्रव्याख्यान का लक्षण ही गलत है तब स्मृति आदि के उत्पादक में अतिव्याप्ति के वारणार्थ जो शेष विशेषणवृंद का अध्याहार है वह भी असंगत ही सिद्ध हुआ। उपरांत, एक 'पूर्व' शब्द यहाँ लुप्त होने का न माने तो प्रत्यक्षफल में अतिव्याप्ति अनुमानत्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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