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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ तृतीयसूत्रे ऽप्येतदेव व्याख्यातम् । अयं तु विशेष :- पूर्वस्मिंस्त्रिप्रकारमेव लिङ्गमनुमानव्यवच्छेदकम् पूर्ववदादयस्तु त्रिप्रकारलिङ्गविशेषणार्थाः । उत्तरस्मिंस्तु सर्वमेतदनुमानव्यवच्छेदार्थम् व्यवच्छेदस्तु पूर्वेणैव न्यायेन । अत्र च सूत्रत्रये प्रथमसूत्रव्याख्यानमेवाभिमतमध्ययनप्रभृतीनाम् अणुना सूत्रेण महतोऽर्थस्य संग्रहाद् । अकारकस्य च त्रिप्रकारलिंगालम्बनस्योत्तरव्याख्यानेऽनुमानत्वप्रसक्तिः फलस्याश्रयणाद् । 'उपलब्धिसाधनस्य' इत्यध्याहारो न युक्तोऽप्रकृतत्वात् । 'सामान्यलक्षणे प्रकृतत्वाददोष' इति चेत् ? तर्ह्यतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थं 5 पूर्ववदादिपदोपादानं न कर्त्तव्यम् प्रत्यक्षसूत्रेऽव्यपदेश्यादीनां प्रकृतत्वात् । शाब्दे च प्रसङ्गो न व्यावर्त्तते यल् लिंग-शब्दाभ्यां जन्यते विज्ञानं यथोक्तविशेषणविशिष्टोपलब्धिरूपं तत्साधनस्यानुमानत्वप्रसक्तिः अतस्तन्निवृत्तये विशेषणान्तरोपादानं कर्तव्यम् । है । निष्कर्ष, अनुमान का लक्षण यह हुआ ये तीन प्रकार के बोध को उत्पन्न करता हुआ जो 'तत्पूर्वक' होता है वह सच्चा अनुमान है, जो कि अव्याप्ति आदि दोषों से मुक्त है । तृतीयसूत्रे... यहाँ व्याख्याकारने जो 'तृतीय' शब्दप्रयोग किया है उस का तात्पर्य यह है कि पहले अनुमानसूत्र के तीन व्याख्या प्रकार शुरु में ही कहे गये थे (१) 'तत्पूर्वकमनुमानम्' इतना ही लक्षण सूत्र है । (२) तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम् यह दूसरे मत का लक्षणसूत्र है । (३) तत्पूर्वकं त्रिविधं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं चानुमानम् - यह तीसरे मत से अनुमान का पूरा लक्षण सूत्र है । इस प्रकार भिन्न भिन्न मत से लक्षण सूत्र का अवान्तर तीन भेद हो गया। पहले- दूसरे अवान्तर लक्षण 15 सूत्रों का व्याख्यान पूर्ण होने के बाद अब तीसरे अवान्तर लक्षण सूत्र के व्याख्यान के लिये व्याख्याकार कहते हैं. इस व्याख्यान का भी तात्पर्य यही है । विशेष तो यह है पहले जो १-१-५ सूत्र की व्याख्या दर्शायी गयी है उस में कहने का तात्पर्य है कि तीनप्रकारवाले लिङ्ग का कथन अनुमान की ही विशिष्टता का द्योतक है। जब कि पूर्ववत् आदि तीन हैं वे तीन प्रकारवाले लिंग की विशिष्टता का द्योतन करता है। उत्तर व्याख्या में तो त्रिविधशब्द और पूर्ववत् आदि पद ये सब अनुमान 20 की ही विशिष्टता बतानेवाले हैं। विशिष्टता का द्योतन पूर्वोक्त न्याय (पद्धति) से ही समझ लेना । इन तीन सूत्र मध्ये अध्ययनादि विद्वानों को प्रथम जो सूत्रव्याख्यान है वही मान्य है, क्योंकि सूत्र अणु दिखने पर भी उस से महान् अर्थ का संग्रह किया गया है । उत्तर व्याख्यानों में तो अकारक (उदासीन ) तीन प्रकारवाले लिंग के आलम्बन (विषय) में अनुमानत्व की अतिव्याप्ति होगी । यदि कहें कि फल की विवक्षा होने से, अकारक में अतिव्याप्ति टालने के लिये 'उपलब्धिसाधनस्य' ऐसा अध्याहार किया 25 जाय तो वह भी अप्रकृत होने से अनुचित है । यदि कहें कि सामान्यलक्षण में तो वह भी (अध्याहृत पद) प्रकृत होने से दोष नहीं रहेगा तब तो फिर पूर्ववत् आदि पदों का ग्रहण भी अतिव्याप्ति टालने के लिये करना निरर्थक हो जायेगा, क्योंकि प्रत्यक्षसूत्र में अव्यपदेश्यादि पद भी प्रकृत ही है । तथा, शाब्दबोध में अतिव्याप्ति प्रसंग अनिवृत्त रहेगा । लिंग और शब्द से पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट उपलब्धिस्वरूप जो विज्ञान उत्पन्न होगा उस के साधन में अनुमानत्व की अतिव्याप्ति होगी । फिर उस 30 की निवृत्ति के लिये और कोई विशेषण जोडना पडेगा । — Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only ३६५ - 10 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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