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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स्वात्मप्रत्यक्षत्वमेव, नापीन्द्रियाणाम् इच्छाद्युत्पत्ती तेषां समवाय्यादिकारणत्वाऽयोगात्, नापि विषयाणाम् उपहतेष्वनुस्मरणदर्शनात्, न चान्यस्य प्रसक्तिरस्ति, अतः परिशेषादात्मसिद्धिः। प्रयोगश्चात्र योऽसौ पर: स आत्मा इच्छाद्याधारत्वात्, ये विच्छाद्याधारा न भवन्ति ते आत्मशब्दवाच्या अपि न भवन्ति यथा
शरीरादयः, आत्मशब्दश्च आत्मत्वसम्बन्धिनि दृष्टव्यः। न चैवं 'पूर्वेण तुल्यं पूर्ववद्' इति वतिरत्र सम्भवति 5 सपक्षेऽदृष्टत्वात्।
न चैवं सामान्यतोदृष्टात् पूर्ववतोऽविशेषः, यतो यत्र धर्मी साधनधर्मश्च प्रत्यक्षः साध्यधर्मश्च सर्वदाऽप्रत्यक्षः साध्यते तत् सामान्यतोदृष्टम्- यथेच्छादयः परतन्त्राः गुणत्वात् रूपवत्। उपलब्धिर्वा करणसाध्या क्रियात्वात् छिदिक्रियावत् । ‘असाधारणकारणपूर्वकं जगद्वैचित्र्यं चित्रत्वात् चित्रादिवैचित्र्यवदि'त्यादि
सामान्यतोदृष्टस्यानेकमुदाहरणम् । उक्तं च ईश्वरकृष्णेन- 'सामान्यतस्तु दृष्टादतीन्द्रियाणां प्रसिद्धिरनुमानात्' 10 (सां-का०-६) इत्यादि। ननु साध्यधर्मस्य सर्वदाऽप्रत्यक्षत्वे तेन हेतोर्व्याप्तिग्रहणाऽसंभवात् कथं तत्प्रति
पादकलिङ्गप्रवृत्तिः ? नैष दोषः केनचिदर्थेन सामान्यात् । नहीं होते, अतः इच्छादि में गुणत्वहेतु से पारतन्त्र्य सिद्ध होता है। अब ढूंढना होगा कि इच्छादि किस के परतन्त्र है ? शरीर या इन्द्रिय आदि के ? नहीं, 'इच्छादि शरीर के विशेषगुण नहीं होते,
क्योंकि शरीरगुणों (जडतादि) से विलक्षण हैं। वैलक्षण्य इस प्रकार है - शरीर के रूपादिगुण स्व 15 और पर सभी को प्रत्यक्ष होते हैं जब कि इच्छा-ज्ञानादि तो सिर्फ स्व = अपनी आत्मा को ही
प्रत्यक्ष होते हैं। इच्छादि इन्द्रियों के भी विशेष गुण नहीं हो सकते क्योंकि इन्द्रिय इच्छादि का समवायी आदि कारण बन नहीं सकता। विषयगण भी इच्छादिगुणों का आधार नहीं है क्योंकि विषयों के विनष्ट होने पर भी स्मृतिज्ञान बचा रहता है। और तो कोई प्रसिद्ध आधार संगत नहीं होगा। इस तरह
परिशेष अनुमान से आत्मतत्त्व सिद्ध होता है। उस का विधिवत् प्रयोग देखिये - (परतन्त्र यानी 20 पर को अधीन, तो) यहाँ जो पर है वही आत्मा है क्योंकि इच्छादि का आधार है। जो इच्छादि
के आधार नहीं होते वे आत्मशब्दवाच्य भी नहीं होते. यथा शरीरादि (व्यतिरेक व्याप्ति)। 'आत्मा' शब्द आत्मत्व के संबन्धि अर्थ में ही देखा गया है। (शरीरत्वादिसम्बन्धि में नहीं।) इस अनुमान में कोई सपक्ष न होने से हेतु सपक्ष में वृत्ति नहीं है। इसी लिये क्रियातुल्यताप्रयोजक विषयतुल्यता
सपक्षरूप पूर्व के साथ नहीं है। (यानी पूर्व = सपक्षप्रत्यक्ष की तुल्यता नहीं है।) अत एव 'वत्' 25 का सम्भव न होने से वत्प्रत्ययवाले पूर्ववत् में इस का समावेश नहीं है।
[सामान्यतोदृष्ट का पूर्ववत् से तफावत ] शंका :- शेषवत् का तो आपने भेद बताया, किन्तु सामान्यतोदृष्ट का पूर्ववत् से अभेद खडा ही रहा।
उत्तर :- नहीं, पूर्ववत् से यहाँ भेद इस तरह है - जहाँ पक्ष और साधन प्रत्यक्ष हो, किन्तु 30 साध्य सदा के लिये परोक्ष हो कर सिद्ध किया जा रहा हो वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। (पूर्ववत्
में तो साध्य सपक्ष में प्रत्यक्ष होता है।) इस के ये उदाहरण हैं - इच्छादि परतन्त्र हैं क्योंकि गुण हैं जैसे रूप। अथवा उपलब्धि करणसाध्य है क्योंकि क्रियारूप है जैसे छेदन क्रिया। जगत् का वैचित्र्य
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