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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३६३ ___ ननु लिङ्गं गुणत्वं कार्यत्वं वाऽत्र सामान्यस्वभावम्। न च तस्य सामान्य केनचिदर्थेन संभवति 'निःसामान्यानि सामान्यानि ( )' इति वचनात्- अत्र केषांचित् प्रतिसमाधानम्- इच्छादय एवात्र लिङ्गत्वेनोक्ता इच्छादेश्च रूपादिना सामान्यं गुणत्वं कार्यत्वं चोपपद्यत एव । अपरे तु लिङ्गाधिकरणत्वादिच्छादयो लिङ्गत्वेनोक्ता इति व्याचक्षते। तेषां च पूर्ववत् सामान्ययोग: प्रतिपत्तव्यः । ततोऽप्रत्यक्षस्य पारतन्त्र्यस्य प्रतिपत्तिः सामान्यतोदृष्टम्। अत्रापि च धर्मिण इच्छादेः प्रत्यक्षप्रतिपन्नत्वं गुणत्व-कार्यत्वादेरपि साधनस्य 5 तद्धर्मत्वं प्रतिपन्नमेव । पारतन्त्र्येण च स्वसाध्येन तस्य व्याप्तिरध्यक्षतो रूपादिष्ववगतैव। साध्यव्यावृत्त्या साधनव्यावृत्तिरपि प्रमाणान्तरादेवावगता। न च त्रितयप्रसिद्धावस्य प्रवृत्तेर्न सामान्यतोदृष्टता अपि तु पूर्ववदेवैकमनुमानं प्रसक्तमिति वक्तव्यम् धर्मिणि पारतन्त्र्यस्य सर्वदाऽप्रत्यक्षत्वात्, नहीच्छादौ धर्मिणि कदाचित् पारतन्त्र्यं प्रत्यक्षम् परस्याऽप्रत्यक्षत्वात्। अनेन च विशेषेणैतत् सामान्यतोदृष्टव्यपदेशमासादयति। असाधारणकारणमूलक है क्योंकि विचित्र है, जैसे चित्रों का वैचित्र्य । ईश्वरकृष्णेन सांख्यकारिका (६) 10 में स्पष्ट ही कहा है - सामान्य से उपलब्ध (साधन) के द्वारा जिस अनुमान से अतीन्द्रिय अर्थों की सिद्धि होती है (वह सामान्यतोदृष्ट है)। शंका :- यदि यहाँ साध्यधर्म सदा के लिये परोक्ष है तो उस के साथ हेतु की व्याप्ति का ग्रहण संभव न होने से उस के साधक हेतु की प्रवृत्ति कैसे शक्य होगी ? उत्तर :- यह दोष नहीं होगा, क्योंकि सदा परोक्ष अतीन्द्रिय अर्थ का भी किसी न किसी रूप 15 से अन्य किसी अर्थ के साथ साम्य रहता है, उस साम्य के आधार पर उस के साथ हेतु की व्याप्ति का ग्रहण हो सकता है। [ इच्छादि में पारतन्त्र्य का सामान्यतोदृष्ट अनुमान ] शंका :- आपने जो इच्छादि परतन्त्र है गुणत्व होने से, इत्यादि अनुमान दिखायें उन में गुणत्व और कार्यत्व जो पक्ष और सपक्ष में स्वयं ही सामान्य स्वभावी है, अब उस का अन्य किसी अर्थ 20 से सामान्य होना संभव ही नहीं क्योंकि ऐसा ग्रन्थवचन है कि सामान्य निःसामान्य (= सामान्य रहित) होते हैं। समाधान :- एक देशियों का इस शंका के प्रतिसमाधान में यह अभिप्राय है कि यहाँ गुणत्व या कार्यत्व शब्द इच्छादि का ही प्रतिपादक होने से इच्छादि ही यहाँ लिङ्ग हैं। उन में तो गुणत्व एवं कार्यत्व सामान्य निर्बाध रह सकता है। अन्य विद्वानों की ऐसी व्याख्या है कि इच्छादि गुणत्वादि 25 लिंग के अधिकरण होने से लिंगात्मक कहे गये हैं। दोनों अभिप्रायों में आखिर इच्छादि लिंग में अन्य अर्थ के साथ सामान्ययुक्तता घट सकती है। ऐसे सामान्यलिंग से परोक्ष पारतन्त्र्य (आत्माधीनत्व) अनुमित होता है - यही सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। इस संदर्भ में भी पक्ष इच्छादि तो प्रत्यक्ष ग्राह्य है। गुणत्व-कार्यत्वादि साधन इच्छादि के धर्मरूप में स्वीकृत ही है। उस के (गुणत्वादि के) साध्यभूत पारतन्त्र्य के साथ व्याप्ति भी रूपादि में प्रत्यक्ष 30 से उपलब्ध है। व्यतिरेक व्याप्ति भी ‘साध्य की निवृत्ति से साधन की निवृत्ति' अभावग्राही प्रमाणान्तर से सुग्राह्य है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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