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खण्ड-४, गाथा-१ तुल्यत्वात् कथंचित् क्रियाया अपि तुल्यता समस्तीति न वतेः प्रयोगोऽनुपपन्नः। तेन पूर्वप्रतिपत्त्या तुल्या प्रतिपत्तिर्यतो भवति तत् पूर्ववदनुमानम्। ननु एवं शेषवत्-सामान्यतोदृष्टयोरपि पूर्ववत्त्वप्रसक्तिः । तथाहिसाध्य-साधनयोः प्रत्यक्षेण दृष्टान्तधर्मिणि सामान्यरूपतया प्रतिबन्धग्रहणम् अन्यथाऽनवस्थाप्रसक्तेरनुमानस्याऽप्रवृत्तिरिति तत्त्रितयस्यापि पूर्वेण तुल्यत्वात् पूर्ववत्त्वम् । न हि यादृग्भूतेन साध्यसामान्येन लिंगसामान्यस्य दृष्टान्ते अध्यक्षतोऽविनाभावग्रहः तादृग्भूतस्यैवानध्यक्षस्य साध्यस्य क्वचिद्धर्मिणि हेतुसामान्यात् शेषवत्- 5 सामान्यतोदृष्टयोरप्रतिपत्तिः। अतो विषयतुल्यतया क्रियातुल्यत्वात् वतेः सर्वत्रैव सम्भवात् कुतः शेषवत्सामान्यतोदृष्टयोः पूर्ववतो भेदसिद्धिः ? असदेतत्- प्रत्यक्षेणाऽगृहीतान्वयम् केवलव्यतिरेकबलात् प्रमां निर्वर्त्तयत् शेषवदनुमानमित्यभ्युपगमात् ।
तथाहि- शेषवन्नाम परिशेषः, यथा गुणत्वाद् इच्छादीनां पारतन्त्र्ये सिद्धे शरीरेन्द्रियादिषु प्रसक्तेषु प्रतिषेधः । शरीरविशेषगुणा इच्छादयो न भवन्ति तद्गुणवैधात्, तच्च रूपादीनां स्वपरात्मप्रत्यक्षत्वेऽपीच्छादीनां 10 पर भी विषयतुल्यतामूलक कथंचित् क्रियातुल्यता मानने में कोई हानि नहीं है- इस लिये 'वत्' का प्रयोग असंगत नहीं। फलितार्थ यह है कि पूर्व प्रतीति (प्रत्यक्ष) के समान प्रतीति जिस से हो वह पूर्ववत् अनुमान है।
शंका :- ऐसी तुल्यता लेने पर ऐसी हानि हो सकती है कि शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट में भी पूर्वत्त्व की अतिव्याप्ति होगी। कैसे यह देखिये - पूर्ववत् - शेषवत् या सामान्यतोदृष्ट किसी भी 15 अनुमान के पूर्व में दृष्टान्तभूत धर्मी में सामान्यरूप से साध्य-साधन का अविनाभाव तो देखना ही होगा। यदि प्रत्यक्ष से अविनाभावग्रह न मान कर अन्य किसी (अनुमान आदि) से मानेंगे, तो उस के लिये जरूरी अविनाभावग्रह के लिये भी प्रत्यक्ष की जरूर पडेगी... ऐसा कर के अनवस्था दोष प्रसक्त होगा अतः अविनाभावग्रह कहीं तो प्रत्यक्ष से मानना ही पडेगा। इस प्रकार तीनों ही अनुमान आप की पूर्वोक्त विवक्षानुसार तो पूर्व से (प्रत्यक्ष से) तुल्य हो जाने से, पूर्ववत्त्व की अतिव्याप्ति 20 हुई। ऐसा तो नहीं है कि लिंग सामान्य का यथा प्रकार साध्यसामान्य के साथ दृष्टान्त में प्रत्यक्ष से अविनाभावग्रह किया गया था, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट में तथाप्रकार के परोक्षसाध्य का किसी पक्ष में हेतुसामान्य के बल से ग्रहण नहीं हो सकता (ऐसा नहीं है, किन्तु प्रत्यक्षविषयीभूत अर्थ का ही, वह जब परोक्ष हो तब साध्य के रूप में अन्य अनुमानद्वय में ग्रहण होता है।) इस प्रकार अन्य दो अनुमानों में भी विषय की तुल्यता से क्रिया की तुल्यता की विवक्षा कर के 'वत्' का प्रयोग 25 सर्वत्र (तीनों अनुमानों में) सम्भव है। तब शेषवत्-सामन्यतोदृष्ट अनुमानद्वय पूर्ववत् से भिन्न तरह का कैसे सिद्ध होगा ?
उत्तर :- शेषवत् की भिन्नता इस प्रकार है – जब प्रत्यक्ष से अन्वयव्याप्ति का ग्रहण नहीं हुआ, सिर्फ केवल व्यतिरेक व्याप्ति के बल से अनुमिति प्रमा निष्पन्न होगी तब उसे शेषवत् कहेंगे ऐसा हमारा अभिमत है।
[ शेषवत् यानी परिशेषानुमान द्वारा आत्मसिद्धि ] देखिये - शेषवत् का मतलब है परिशेष (अनुमान)। वह इस प्रकार - गुण कभी स्वतन्त्र
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