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________________ ३६० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षद्रव्यवृत्तेश्च तस्याऽतीन्द्रियत्वात्। अतोऽसिद्धत्वान्नान्यत्र दर्शनत्वं गत्यनुमापकमिति न सामान्यतोदृष्टानुमानोदाहरणमेतद् युक्तम्। किन्तु समानकालस्य स्पर्शस्य रूपादकार्यकारणभूतात् प्रतिपत्तिः सामान्यतोदृष्टानुमानप्रभवा। न च रूप-स्पर्शयोः कार्यकारणभावो नैयायिकदृष्ट्या प्रसिद्धः, अविनाभावस्तु तमन्तरेणाऽपि तयोरुपपन्न एव । 5 न च सौगतप्रक्रियया रूपस्य स्पर्शकार्यता, तत्कार्यतया लोके तस्याऽप्रसिद्धः । न चाऽप्रसिद्धमपि तत्कार्यत्वं गमकत्वाऽन्यथानुपपत्त्या तस्य परिकल्पनीयम्, प्रतिबन्धस्य सौगताभ्युपगमेन तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणस्याऽसम्भवात्। सम्भवेऽपि तद्ग्राहकप्रमाणाऽयोगात्, क्षणविशरारुत्वे भावानां सर्वस्याप्यस्याऽघटमानत्वेन प्रतिपादितत्वात्। ततो रूपेण स्पर्शानुमानं सामान्यतोदृष्टानुमानम्। ___अथवा - पूर्वेण तुल्यं वर्त्तते इति ‘पूर्ववद्' इति वतेः प्रयोगः । न च क्रियातुल्यत्वे वतिप्रयोगस्य 10 वैयाकरणैरिष्टेरत्र च सम्बन्धप्रतिपत्तेः स्पष्टत्वादनुमेयप्रतिपत्तेश्चाविशदतया तदभावतो विषयतुल्यत्वस्य च तन्निमित्तत्वेनानिष्टेर्वतिप्रयोगोऽनुपपन्न इति वक्तव्यम्, यतो यद्यपि प्रत्यक्षानुमानप्रतीत्योर्भेदस्तथापि विषयअसिद्ध होने से अन्यत्रदर्शनत्व कभी भी गति-अनुमानकारक नहीं होगा। निष्कर्ष, यह उदाहरण (अन्यत्रदर्शनवाला) सामान्यतोदृष्ट अनुमान का समर्थक नहीं है। [रूप से स्पर्शानुमान सामान्यतोदृष्ट ] 15 किन्तु सामान्यतोदृष्ट अनुमान का उदाहरण यह है - रूप से, जो कि स्पर्श का न कारण है न कार्य, ऐसे रूप से समानकालीन स्पर्श का अवबोध सामान्यतोदृष्टानुमानजन्य होता है। नैयायिक दर्शनानुसार रूप-स्पर्श का कोई कारण-कार्यभाव नहीं होता। फिर भी उस के विना भी अविनाभाव तो सुघटित ही है। बौद्धमत में भी रूप स्पर्श का कार्य नहीं माना जाता, लोक में भी स्पर्शकार्य के स्वरूप से रूप की प्रसिद्धि नहीं है। “अप्रसिद्धि के बावजूद भी, ज्ञापकत्व की अन्यथानुपपत्ति के 20 कारण, रूप को स्पर्शकार्य मानना पडेगा" ऐसी कल्पना भी असंगत है, क्योंकि बौद्धमतानुसार रूप एवं स्पर्श में न तो तादात्म्य है न तो तदुत्पत्ति का सम्भव है। कदाचित् संभव की कल्पना करें तो भी उस के प्रकाशक प्रमाण का उपलम्भ नहीं है। ‘सर्वं क्षणिकं' मत में तो किसी भी भाव का अन्य के साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति घटमान नहीं है यह पहले कहा जा चुका है। निष्कर्ष, रूप से स्पर्श का अनुमान सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। [वत्-प्रत्यय का 'तुल्यता' अर्थ ले कर पूर्ववत् की व्याख्या ] न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकाकार ‘अथवा...' कर के और भी एक अर्थ सूचित करते हैं - वत् प्रत्यय 'तुल्य' अर्थ में ले कर ‘पूर्व के तुल्य (प्रत्यक्ष के तुल्य) बरते वह पूर्ववत्' ऐसा विग्रह करना। शंका :- वैयाकरणों का मत यह है कि क्रिया की तुल्यता हो तभी 'वत्' प्रयोग होता है। यहाँ तो ‘वत्' स्पष्ट ही (मतुबर्थ) सम्बन्ध अर्थ में ही प्रतीत होता है। क्रियातुल्यता अर्थ में नहीं। देखिये30 अनुमेय अर्थ प्रतीति अस्पष्ट होती है जब कि प्रत्यक्षप्रतीति स्पष्ट होती है अतः यहाँ क्रिया का तुल्यत्व हे नहीं। विषय की तुल्यता है किन्तु वह 'वत्' का निमित्त व्याकरणशास्त्र में नहीं माना गया। अतः ‘वत्' का प्रयोग असंगत है। उत्तर :- नहीं, कारण यह है कि यद्यपि प्रत्यक्ष-अनुमान-प्रतीतिक्रियाओं में स्वतः भेद न होने 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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