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खण्ड-४, गाथा-१
३५९ उत तच्छक्तिः ? पूर्वस्मिन् विकल्पे शेषवत्यन्तर्भावः । उत्तरस्मिन्नपि ‘अन्यत्र दर्शनम्' इत्येवंविधः शब्दो विशिष्टप्रत्ययजनने 'अन्यत्रदर्शन'स्वरूपस्य सहकारी हेतुः, स च गतेः कार्यत्वात् शेषवान्। असदेतत्अत्र ह्यन्यत्रदर्शनत्वं हेतुः न तच्छब्दवाच्यत्वम् तच्च स्वरूपसहकारिभेदेन द्विरूपा शक्तिः अन्यत्रदर्शनं स्वरूपशक्तिः तद्दर्शनत्वं सहकारिशक्तिः। सा चात्मननःसंयोगोऽदृष्टादि च। तत्र केषांचिन्नित्यत्वे केषांचिदनित्यत्वेऽपि न गतिकार्यतेति कुतः शेषवत्यन्तर्भावः।
एतदपरे दूषयन्ति – ‘अन्यत्रदर्शनम्' इत्यनेन सवितुः किमप्यधिकरणं निर्दिष्टम् । न च निरूप्यमाणं तत् सम्भवतीति तद्दर्शनमात्रमेवावशिष्यते न ‘अन्यत्र' इति शब्दवाच्यम्। अथोदयसमये ऽन्यत्रदर्शनं ततोऽन्यत्रदर्शनं सवितुरस्तमयसमये, न च दृष्टस्याऽपलापो युक्तियुक्तः - सत्यम् अस्त्ययं प्रतिभासः स तु 'अन्यत्र' इत्यधिकरणस्य निर्देष्टुमशक्तेरयुक्तः । न च तत्सद्भावेऽप्यन्यत्रदर्शनत्वमनुपलभ्यमानं हेतुः। न च तस्योपलंभः संभवति आत्ममनःसंयोगादृष्टादेः सर्वस्यातीन्द्रियत्वात् संयोगस्यैन्द्रियकत्वेऽप्यप्रत्यक्षद्रव्यवृत्ते: 10 गतिकार्य होने से शेषवत् में अन्तर्भाव प्राप्त होगा। दूसरे विकल्प में - ‘अन्यत्रदर्शन' ऐसा शब्दप्रयोग विशिष्टप्रतीति के उत्पादन में अन्यत्रदर्शनस्वरूप का सहकारी हेतु बनेगा और वह तो परम्परया गति का कार्य है – अतः शेषवत् में अन्तर्भाव गले पडा।
उत्तर :- यह शंका गलत है। वास्तव में तो यहाँ अन्यत्रदर्शन ही हेतु है न कि अन्यत्रदर्शनशब्दवाच्यत्व । अब ध्यान में लो कि वह अन्यत्रदर्शन स्वरूपशक्ति और सहकारीशक्ति के भेद से दो प्रकारवाला 15 है। अन्यत्रदर्शन यह स्वरूपात्मक शक्तिरूप है, अन्यत्रदर्शनत्व यह सहकारिशक्तिरूप है। क्या मतलब ? आत्म-मनः संयोग और अदृष्टादि सहकारि यही है सहकारिशक्ति। यही सहकारिशक्ति चाहे नित्य हो (तब तो किसी का कार्य नहीं) या अनित्य, कभी गति का कार्य नहीं है, फिर कैसे शेषवत् में अन्तर्भाव होगा ?
[अन्यत्रदर्शन की पदार्थरूप से अघटमानता ] ____ उपरोक्त मान्यता को दूषित करनेवाले कुछ अन्य विद्वान कहते हैं - सूरज का अन्यत्र (स्थानान्तर में) दर्शन - ऐसा जो प्रयोग है, उस में ‘अन्यत्र' शब्द सूरज के किसी न किसी अधिकरण का सूचक है, किन्तु सूरज का कोई अधिकरण ही नहीं है। तब बचा सिर्फ दर्शन, ‘अन्यत्र' शब्द का तो कुछ अर्थ ही न रहा। यदि कहा जाय - 'सूरज उदयकाल में एक दिशा में दीखता है, अस्त काल में अन्य दिशा में दीखता है, सर्वजनप्रतीत इस तथ्य का अपलाप क्यों ? मतलब, अन्यत्र शब्द 25 भी सार्थक है।' - तो हम कहते हैं कि यह बात सच है कि वैसा दिशाभेद से प्रतिभास होता है किन्तु वह असंगत इस लिये है कि 'अन्यत्र' शब्द के द्वारा किसी वास्तव अधिकरण का निर्देश नहीं होता, क्योंकि उस की उस के लिये शक्ति नहीं है। कदाचित् वैसी शक्ति होने पर भी, अन्यत्रदर्शनत्व अतीन्द्रिय अत एव अनुपलब्ध होने से हेतु नहीं हो सकता। अन्यत्र दर्शनत्व सहकारी शक्तिरूप, यानी आत्ममनः-संयोग-अदृष्टादिरूप कहा गया है जो अतीन्द्रिय है। अदृष्ट तो अतीन्द्रिय ही है, संयोग 30 इन्द्रियगोचर हो सकता है किन्तु परोक्षद्रव्ययुग्म का अथवा एक प्रत्यक्ष-एक परोक्ष दो द्रव्यों का संयोग अधिकरण की परोक्षता के कारण उपलब्धिगोचर नहीं हो सकता, अतीन्द्रिय हो गया। अतीन्द्रिय हेतु
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