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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
सामान्यतोदृष्टम् अकार्यकारणभूतेन लिङ्गेन यत्र लिङ्गिनोऽवगमः । अविनाभावित्वं त्रयाणामप्यविशिष्टम् । विवक्षितसाध्यसाधनापेक्षयाऽकार्यकारणभूतत्वादिकस्तस्य विशेषः । अन्यत्रदृष्टस्याऽन्यत्रदर्शनं व्रज्यापूर्वकं देवदत्तादेः, तथा चादित्यस्याऽन्यवृक्षोपरिसम्बन्धितया निर्दिश्यमानस्यान्यपर्वतोर्ध्वभागसम्बन्धितया निर्देशो दृष्ट:, तेन च गत्यविनाभाविना भाव्यम् । अन्यत्र दर्शनस्य च न गतिकार्यत्वम् गतेः संयोगादिकार्यत्वात् । 5 'अन्यत्रदर्शनं' धर्मि 'गत्यविनाभूतम्' इति साध्यो धर्मः, अन्यत्रदर्शनशब्दवाच्यत्वात्, देवदत्तान्यत्रदर्शनवत् । नन्वन्यत्रदर्शनस्य शेषवत्यन्तर्भावो गतिजन्यत्वात् । अथान्यत्रदर्शनं न साक्षात् गतिकार्यम् अपि तु पारम्पर्येणेति न शेषवत्यन्तर्भावः तर्हि उभयतटव्यापित्वमपि न साक्षाद् वृष्टिकार्यम् इति न शेषवदुदाहरणं भवेत् । अथ नान्यत्रदर्शनं हेतुः किन्तु तच्छब्दवाच्यत्वम् नन्वत्रापि वक्तव्यम् किं तद् अन्यत्रदर्शनमेव [ सामान्यतो दृष्ट अनुमानप्रकार का विवरण ]
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तीसरा सामान्यतोदृष्ट अनुमानप्रकार इस प्रकार है ऐसा लिंग जो न तो कारणरूप से न तो कार्यरूप से प्रस्तुत किया जाता है, ऐसे लिंग से लिंगी का अवबोध होना ।
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तीनों प्रकार में हेतु में साध्य का अविनाभावित्व, विना भेदभाव अपेक्षित है। विशेषता ( तफावत ) यहाँ तीसरे अनुमान में इतनी ही है कि इस में लिंग को कारणविधया या कार्यविधया पेश नहीं किया जाता। तीसरे अनुमान का एक उदाहरण :- एक स्थल में देवदत्तादि को देखा था, फिर कहीं दूर दूसरे 15 स्थान में देखा, तो समझ जाते हैं कि देवदत्त का यह स्थानान्तर गतिपूर्वक (चाहे पैदल चाहे वाहन
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द्वारा) ही है । वैसे ही सुबह पूर्व में एक वृक्ष के ऊपरीभाग वाले गगनदेश में जब सूरज का स्पष्ट निर्देश किया गया था, बादमें शाम को दूसरे पर्वतादि के ऊपरिभागवाले गगनदेश के सम्बन्धि के रूप में सूरज का निर्देश लोक में देखा जाता है तब समझ सकते हैं कि सूरज का यह स्थान - परिवर्त्तन गतिपूर्वक ही होना चाहिये । इतना ध्यान में लिया जाय यह कार्यहेतु नहीं है क्यों कि यहाँ अन्यत्रदर्शन 20 गति का कार्य नहीं है । गति का कार्य तो देशान्तर - संयोग आदि ही होता है। अतः यहाँ प्रयोग ऐसा होगा कि 'अन्यत्र ( स्थानान्तर में एक वस्तु का ) दर्शन' धर्मी है, 'गति से अविनाभूत होना' यह साध्य धर्म है, हेतु है 'अन्यत्र दर्शनशब्दप्रयोगविषयत्व' । दृष्टान्त है, देवदत्त का अन्यत्रदर्शन । [ अन्यत्रदर्शन का शेषवत् में अन्तर्भाव शंका समाधान ]
शंका :- अन्यत्रदर्शन गतिजन्य होने से उस का अन्तर्भाव 'शेषवत्' में होना चाहिये ।
उत्तर :- अन्यत्रदर्शन गति का साक्षात् कार्य नहीं है किंतु परम्परया है इस लिये शेषवत् में अन्तर्भाव नहीं हो सकता ।
शंका :- अहो ! तब तो जल का उभयतटव्यापित्व भी वृष्टि का साक्षात् कार्य न होने से, वह शेषवत् का उदाहरण नहीं होगा ।
उत्तर :- अन्यत्रदर्शन यहाँ हेतु नहीं है किन्तु अन्यत्रदर्शनशब्दवाच्यत्व हेतु है
जो परम्परया
शंका :- यहाँ भी पूछना पडेगा अन्यत्रदर्शन ही अन्यत्रदर्शनशब्दवाच्यता है या अन्यत्रदर्शन की शक्ति ही अन्यत्रदर्शनशब्दवाच्यत्व से अभिप्रेत है ? पूर्व विकल्प मानेंगे तो पुनः अन्यत्रदर्शन परम्परया
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30 भी गतिकार्य नहीं है।
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