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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३५७ साधनधर्मः अनेकफलफेनसमूहवत्त्व-शीघ्रतरगमनत्व-कलुषत्वादिकश्च तस्य विशेषः साध्याऽव्यभिचारी यदा निश्चितो भवति तदा गमकत्वात् नोभयतटव्यापित्वमानं तोयस्य। अत एव न प्रतिज्ञार्थंकदेशताऽपि दोषः। न चोभयतटव्यापित्वमुदकस्य कथमपामधःपातलक्षणाया वृष्टेः कार्यम् इति वक्तव्यम् पारम्पर्येण तस्य तत्कार्यत्वात्। तथाहि- द्रव्यत्वादापः भूसंस्पृष्टाः स्पन्दन्ते, स्पन्दमानाश्च संयुक्ताः परस्परं महत्कार्यमारभन्ते, तदपि 5 स्पन्दमानं स्वात्मनि वेगमारभते, क्रियाकारणापेक्षं तच्च तथाप्रवृत्तं नदीशब्दवाच्यं गर्तं विदधाति। तत्र पूर्वोदकविलक्षणस्योदकस्योभयतटसंयोग: पारम्पर्येण वृष्टिकार्य इति कार्यात् कारणानुमानं शेषवत्। शेषमत्र पूर्ववदनुमान एव चिन्तितम्। निरस्त हो जाता है। कैसे यह देखिये – 'नदी'पद वाच्य जो दो किनारे के बीच गतविशेष है वह मी (पक्ष) किया गया है, उस गर्ता का उपरवास में वृष्टिवाले प्रदेश का सम्बन्धित्व - यह 10 साध्य धर्म है। 'जल का उभय तटव्यापकत्व' यह साधन धर्म है किन्तु सामान्य प्रकार का नहीं, विशेष प्रकारवाला - यानी उन तटों के बीच अनेक फल-फुल बहते हो, बहुत फेन छटा उछलती हो, बडे वेग से पानी बहता हो, पानी भी तटीय मिट्टी से कलुषित हो- ऐसा विशिष्ट साधनधर्म (उभयतटव्यापित्व) कभी साध्यव्यभिचारी नहीं होता ऐसा निश्चय जिस को है उस के लिये उक्त साधनधर्म अवश्य साध्य का ज्ञापक बन सकता है। जल की उभयतटव्यापिता मात्र को हम ज्ञापक नहीं कहते। इसी लिये 15 तो यहाँ प्रतिज्ञातअर्थएकदेशता का दोष नहीं लगता, क्योंकि विशिष्ट धर्म को साधन बनाया गया है। ऐसा प्रश्न करना कि 'जल तो सदा अधोदिक्गामी होता है, तो वृष्टि का कार्य भी अधोदिक्पतन ही होगा, उभयतटव्यापिता वह वृष्टि का कार्य कैसे ?' (ऐसा प्रश्न) अनुचित है, क्योंकि वृष्टि के कारण जब नदी में पानी बढ़ जाता है किन्तु ढलान कम रहता है तब पानी दोनों किनारों की ओर बढता है, इस प्रकार परम्परा से वृष्टि का कार्य उभयतट जलव्यापिता हो सकता है। कैसे यह 20 देखिये [ उभयतटव्यापिता वृष्टि का कार्य - स्पष्टता ] प्रवाही होने के कारण छूटी छूटी बारीश नीचे गिरती है तो भूमि ऊपर ऊछलकूद करती है, परस्पर मिल कर विशाल जलस्कन्ध कार्य का निर्माण करती है, वह कार्य भी आंदोलित होता हुआ अपने भीतर वेग को उत्पन्न करते हैं। वेग से उत्पन्न क्रियात्मक कारण के सहयोग से वह जलस्कन्ध 25 कार्य बहता हुआ जमीं में खड्डा बना देता है। जिस को हम 'नदी' कहते हैं। छूटे छूटे बुंद रूप से गिरे बारीश से विलक्षण यह जलस्कन्धरूप कार्य का गर्ता की दोनों ओर किनारे से संयोग हो जाता है। इस प्रकार, यह जल की उभयतटव्यापिता परम्परया वृष्टि का कार्य कहा जाता है। यहाँ उस कार्य से उपरवास प्रदेश में भयी वृष्टि रूप कारण का जो अनुमान होता है यह ‘शेषवत्' अनुमान प्रकार है। इस के बारे में और भी जो कुछ चर्चा है वह पूर्ववत् अनुमान के विवेचन में कही जा 30 चुकी है, अलं विस्तरेण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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