________________
३५६
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
कार्यविशिष्टत्वेऽनुमीयमाने समर्थत्वेन तद्गतेन साधनधर्मेण हेतुरपि व्यधिकरणः। अत: ‘हेतुना या समग्रेण...' (प्र.वा.३-७) इत्याद्ययुक्तमेव ।
अत्र च पूर्वं कारणमस्यास्तीति पूर्ववत् कार्यं नाभिधीयते किन्तु कारणधर्म उन्नतत्वादिः, तेन कारणधर्मस्य वृष्ट्युत्पादकत्वस्यानुमानम्, न तु पूर्ववत्-कार्यात् कारणानुमानम्, तेन ‘पूर्ववत् कार्यात् कारणानुमानं 5 प्राप्नोति' इति यद् (३४८-६) गोगाचार्येण प्रेरितम् तन्निराकृतं द्रष्टव्यम् ।
'शेषवत्' इत्यत्रापि 'कारण-कार्ययोलिङ्गत्वेनोपक्षेपे अनुपयुक्तं कार्यं शेषः तद् यस्यास्ति तच्छेषवद्' इति तद्गत एव साधनधर्मः कश्चिदुक्तः न तु कारणम्। तेन हि कार्यगतेन धर्मान्तरमप्रत्यक्ष वृष्टिमद्देशसम्बन्धित्वादिकं कार्यगतमेवानुमीयते। अत एव कारणगमकत्वपक्षोक्तदोषप्रसक्त्यभावोऽत्रापि द्रष्टव्यः ।
तथाहि- 'नदी' शब्दवाच्यो गर्तविशेषो धर्मी तस्योपरिवृष्टिमद्देशसम्बन्धित्वं साध्यो धर्मः, उभयतटव्यापित्वादिकस्तु 10 कैसे होगा ? भेद के विना भी स्वभाव हेतु से अर्थोपलम्भ को छोड कर सिर्फ समारोपव्युच्छेद को
ही अनुमान का फल मान लिया जाय तो यह भी संभव नहीं है - यह तो पहले बार बार कहा जा चुका है। अतः यहाँ पुनरुक्ति क्यों करें ?
[पूर्ववत् अनुमान के विवरण का निष्कर्ष ] निष्कर्ष यह है कि सामर्थ्य के साथ प्रतिबद्धता के विरह में (कार्य के साथ प्रतिबद्ध) कारण 15 के देखने से कार्य का ही वहाँ अनुमान समझना उचित है न कि समग्र कारणसमुदाय के द्वारा सिर्फ
योग्यता का, यानी कार्य के प्रति सामर्थ्य का अनुमान। यहाँ हेतु की व्यधिकरणता के दोष को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि धर्मीभूत समर्थ कारण को पक्ष कर के, उसी कारण के धर्मरूप सामर्थ्य को हेतु कर के पश्चाभाविकार्यवैशिष्ट्य का अनुमान हम मानते हैं - यहाँ कारण धर्म धर्मी में
सद्भूत है अतः हेतु व्यधिकरण नहीं। अत एव प्रमाणवार्तिक (३-७) में जो कहा है कि 'समग्र हेतु 20 से जहाँ कार्योत्पत्ति का अनुमान होता है वहाँ अन्य अर्थ (कार्य) सापेक्षता न होने से स्वभाव ही अनुवर्णित (यानी अनुमित) किया जाता है' – इत्यादि अयुक्त ही है।
पूर्ववत् की इस व्याख्या का सार यह है कि जैसा पूर्व में अन्ये तु-वालोंने कहा था कि 'पूर्वकारण है जिस का वह' यानी कार्य-वैसा हम नहीं कहते हैं किन्तु पूर्ववत् का अर्थ है कारणधर्म
उन्नतत्वादि, जिस से कि अन्य कारणधर्म वृष्टिकारकत्व का अनुमान होता है। 'पूर्ववत् = कार्य, कार्य 25 से कारण का अनुमान' ऐसा हम नहीं कहते। अत एव गोगाचार्यने वैसा जो आरोप किया था कि (३४८-३१) पूर्ववत् = कार्य, उस से कारण का अनुमान आ पडेगा' वह विध्वस्त हो जाता है।
[शेषवत् अनुमान का ऊहापोह ] शेषवत्- यहाँ ‘शेष' शब्द से अभिप्रेत वह कार्य है, जो पूर्ववत् अनुमान में कारण-कार्य के लिंग की चर्चा के उपक्रम में अचर्चित है। ऐसा शेष (कार्य) जिस में उपयुक्त है वह शेषवत् अनुमान 30 है। इस संदर्भ में कार्य के ही एक धर्मरूप 'शेष' के द्वारा कार्यगत ही किसी परोक्ष धर्मान्तर वृष्टिवाले
प्रदेश का संसर्ग आदि अनुमानित किया जाता है। अत एव, जो दोष कारण के ज्ञापकत्व- पक्ष के ऊपर थोपा गया था वह 'कार्यगत साधन धर्म द्वारा कार्यगत धर्मान्तर की सिद्धि के कथन' द्वारा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org