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________________ खण्ड-४, गाथा-१ सामान्यलक्षणोऽर्थोऽभ्युपगम्यते, तदा तस्याऽवस्तुत्वेन साध्यप्रतिबद्धत्वाभावाद् वस्तुत्वेनाऽध्यवसितस्यापि कतो कत्वम ? ययोहि प्रतिबन्धो न तयोर्भेद इति न गम्यगमकभावः ययोश्च भेदाध्यवसायो न तयोः प्रतिबन्धः। _____ न च दृश्य-विकल्प्ययोरेकत्वाध्यवसायादनुमानानुमेयव्यवहाराददोषः । तथाभ्युपगमे तदेव कल्पनाविरचितलिङ्गप्रभवत्वमनुमेयप्रतिपत्तेः संवादविरोधि समायातम् इति कुतः परोक्तदूषणव्युदासः ? न च समारोपव्यवच्छेद: 5 स्वभावहेतोः फलं सम्भवीति प्रतिपादितमसकृदिति न पुनः प्रतन्यते। ततोऽप्रतिबद्धसामर्थ्यकारणदर्शनात् कार्यस्यैवानुमानं न पुन: समग्रेभ्यः सामर्थ्यानुमानं युक्तम् । न च समर्थकारणस्य धर्मिभूतस्यानन्तरभावि(लिङ्ग) है वह कल्पित नहीं है। अतः सर्व हेतुदोष प्रसक्त होने की सम्भावना नहीं है। यह सच है कि विकल्पजाल सब इच्छामात्रानुसारी होता है वह वास्तव पदार्थस्पर्शी नहीं होता। अत एव स्वैच्छिक होने से अर्थ के साथ प्रतिबद्धता न होने के जरिये विकल्प अर्थप्रतिपादक नहीं होते, अत एव विकल्पचित्रित 10 हेतु से अर्थग्रहण का स्वीकार करेंगे तो (वह मिथ्या अर्थग्रहण होने से वास्तव) अर्थ का उपलम्भ होगा ही नहीं। फलितार्थ, अर्थ ही अर्थ का ग्राहक होता है, मतलब - लिंग अकल्पित वास्तव होने से स्वभाव हेतु अनुमान हो सकेगा।" -तो यह बौद्ध कथन गलत है - क्योंकि कई बार हम कह चुके हैं कि यदि कृतकत्वादि (हेतुभूत) अर्थ अनित्यत्वादि धर्म का ज्ञापक मानते हैं तो उन दोनों में वास्तव भेद के कारण ही 15 गम्य-गमकभाव बन सकता है, तादात्म्य (अभेद) होने पर गम्य-गमकभाव मान लेना अयुक्त है। यदि आप कहें कि 'हम अभेदापन्न कृतकृत्व को हेतु नहीं करते किन्तु विकल्पकल्पित कृतकत्वसामान्यरूप अर्थ का ज्ञापकरूप से स्वीकार कर लेंगे तो स्वभाव हेतु बन जायेगा' - तो यह अयुक्त है क्योंकि विकल्प कल्पित सामान्य को तो आप वस्तुरूप ही नहीं मानते, उस की किसी साध्य के साथ वास्तव प्रतिबद्धता भी शक्य नहीं है, तब यदि लाख बार उस में वस्तुत्व का आरोप कर के हेतु बनावें 20 तो भी वह ज्ञापक नहीं बन सकेगा। हमारी स्पष्ट मान्यता है कि जिन दोनों में प्रतिबद्धता का आप स्वीकार करते हैं उन में यदि भेद नहीं है तो ज्ञाप्य-ज्ञापक भाव नहीं बन सकता; तथा जिन में भेद का आरोप करेंगे उन में वास्तव प्रतिबद्धता का सम्भव नहीं घट सकता। [विकल्प द्वारा कल्पित हेतु से अनुमान अनुचित ] आशंका :- यद्यपि दृश्य और विकल्प्य अर्थों में भेद तो होता ही है, वह भेद वहाँ अगोचर 25 रहता है उस का कारण यह है कि उन दोनों में भेद की उपलब्धि न हो कर एकत्व का अध्यवसाय बना रहता है किन्तु वह वास्तव भेद का बाधक न होने से भेद के रहते हुए गम्य-गमक भाव यानी अनुमान-अनुमेय व्यवहार घट सकता है। उत्तर :- नहीं, ऐसा मानने पर तो दृश्य की सिद्धि के लिये विकल्पविषय को हेतु बनाने पर, पहले कहा था उसी का पुनरावर्तन-विकल्पकल्पित हेतु से ही अनुमेय का भान मानना होगा, किन्तु 30 कल्पित हेतु वास्तव अर्थ से संलग्न न होने से वहाँ जो अनुमेय भासित होगा उस का संवाद (संवादी उपलम्भ) तो होना दूर, यहाँ तो उस का विरोधी विकल्प फलित होगा, अब बोलिये कि पहले जो दोष लगाया था कि - विकल्प से अर्थ की उपलब्धि ही नहीं हो सकती - उस दूषण का परिहार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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