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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
साध्य-साधनयोर्वास्तवोऽभेदस्तत्रापि स्वलक्षणेन व्यवहाराऽयोगात् लिङ्गसाध्यधर्मिसाध्यधर्मनानात्वप्रतिपत्तिरूपो व्यवहारो बुद्ध्यारूढ एव । तदुक्तम्- 'सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्म-धर्मिभेदेन' ( ) इत्यादि । असदेतत् यतो यदि बुद्धिकल्पितो धर्म-धर्मिव्यवहारः तर्हि कल्पिताद्धेतोः साध्यसिद्धिर्भवेत् । ततश्च यावान् हेतुदोषः स सर्वो भवत्प्रयुक्ते साधने प्रसज्येत । तदुक्तं कुमारीलेन ( श्लो. वा. निरा. श्लो. १७१5 १७२ ) - “ यदि चाऽविद्यमानोऽपि भेदो बुद्धिप्रकल्पितः । साध्य-साधनधर्मादेर्व्यवहाराय कल्पते ।। ततो भवत्प्रयुक्तेऽस्मिन् साधने यावदुच्यते । सर्वत्रोत्पद्यते बुद्धिरिति दूषणता भवेत् । । ” अथ धर्म-धर्मितया भेद एव बुद्धिपरिकल्पितो नार्थोऽपि लिङ्ग- लक्षणो, विकल्पभेदानामिच्छामात्रानुरोधत्वेन स्वतन्त्राणामर्थाऽप्रतिबद्धत्वेन तदप्रतिपादकत्वात् । विकल्पकल्पिताद् हेतोरर्थप्रतिपत्त्यभ्युपगमे अर्थप्रतिलम्भ एव न भवेत्, ततोऽर्थ एवार्थं गमयति । असदेतत्- यतो यदि कृतकत्वलक्षणोऽर्थोऽनित्यत्वादेरर्थस्य 10 गमकस्तदा तयोस्तादात्म्याद् गम्यकगमकभावोऽयुक्त इत्यसकृदावेदितम् । अथ विकल्पप्रतिभासी कृतकत्वादिकः [ कारण से कार्य का नहीं योग्यता का अनुमान असंगत ]
यह जो कहा था (३५०-१३) 'समग्र यानी अविकल (समर्थ) कारण से कार्य का अनुमान शक्य नहीं किन्तु कारण में एकात्मभावापन्न योग्यता संज्ञक धर्म का ही अनुमान होता है। मतलब कि कारण के स्वभाव रूप समग्रता हेतु के द्वारा स्वभाव अभिन्न योग्यता का अनुमान होने से यह 15 स्वभावहेतुजन्य अनुमानभेद है न कि कारण से कार्य का ।' तो यह नितान्त असंगत है। कारण, अभेद में गम्यगमकभाव सम्भव नहीं ।
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[ धर्मि- धर्मभाव बुद्धिकल्पित होने की आशंका
उत्तर ]
बौद्ध आशंका :- जहाँ भी साध्य - साधन में वास्तव अभेद होता है वहाँ भी स्वलक्षण से (अतीन्द्रिय होने के कारण ) व्यवहार तो सम्पन्न नहीं होता। एक ही वस्तु में परस्पर अभिन्न धर्मों का किसी 20 का लिंग के रूप में, किसी का साध्यधर्मी के रूप में, तो किसी का साध्यधर्म के रूप में जो पृथक्
पृथक् अवबोधस्वरूप व्यवहार किया जाता है वह बुद्धिकृत ( बुद्धि कल्पित ) ही होता है। इस बुद्धिकृत भेद से ही गम्य- गमकभाव संभव है। कहा गया है ' यह सम्पूर्ण ही अनुमान - अनुमेय ( साधन - साध्य ) का व्यवहार बुद्धिकल्पित धर्म-धर्मी भेद से होता है ।'
उत्तर :- यह आशंका गलत । कारण, यदि सम्पूर्ण धर्म-धर्मी व्यवहार बौद्धकथनानुसार बुद्धिकल्पित 25 ही है तब तो कल्पित ( न कि वास्तविक ) हेतु से ही साध्य की सिद्धि करनी पडेगी । फलतः बौद्धदर्शनोक्त
सभी हेतुओं में वे सब हेतुदोष लागु होंगे जो काल्पनिक हेतु में लग सकते हैं । कुमारीलने भी श्लोकवार्त्तिक में कहा है 'यदि साध्य-साधनधर्मादि का भेद अवास्तव होने पर भी व्यवहार के लिये बुद्धि से कल्पना की जाती है तब तो आप के कहे हुए साधनों में, कहा जा सकता है कि सदोषता प्रसक्त होगी क्योंकि बुद्धि तो सर्वत्र उत्पन्न हो सकती है ।'
[ अभेदावस्था में भी स्वभावहेतु की संगति का प्रयास व्यर्थ ] यदि बौद्ध कहें “स्वभावहेतुस्थल में यद्यपि साध्यधर्मी और हेतुधर्म का अभेद होते हुए भी बुद्धिकल्पना से भेद किया जाता है । वह भेद जरूर कल्पित ही है किन्तु कल्पितभेदवाला जो हेतु
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