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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ११ अथाऽनुमानाद् बाह्योर्थः प्रतीयते- तर्हि प्रतिबन्धसिद्धिर्वक्तव्या। न च बाह्योर्थोऽध्यक्षतः कदाचनापि सिद्धः, नापि तत्प्रतिबद्धो ज्ञानाकार:- इति न प्रतिबन्धसिद्धिः । तामन्तरेण न चाऽनुमानप्रवृत्तिरिति कथं बाह्यार्थसिद्धिः ? अथार्थापत्त्या बाह्योर्थोऽधिगम्यते। न, अर्थापत्त्यार्थस्वरूपप्रतिपत्तौ तस्याः प्रत्यक्षरूपताप्रसत्तेः । न च स्वरूपप्रतिपत्तिमन्तरेणाप्यनुमानवत् तस्याः प्रामाण्यम् अनुमानस्यावगतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वेन प्रामाण्यात् अत्र च तदभावात् । न चाप्यत्यन्तपरोक्षस्यार्थस्य केनचिदाकारेण विषयीकरणमिति न तस्य प्रतिपत्तिविषयता 5 सम्भवत्यपि इति नार्थापत्त्यार्थप्रतीतिः। ___ अथ दूरस्थितवृक्षादौ तत्पिण्डाद्याकारो यथा बाह्यवृक्षाद्यर्थव्यतिरेकेण न प्रतिभासविषयः तद्वत् पुरोवर्तिनि स्तम्भादौ तदाकारः सत्येव बाह्ये स्तम्भाद्यर्थे, इति सिद्ध एव बाह्योऽर्थः । न च वृक्षादावपि पिण्डाद्याकार दूसरा नाम है। (तात्पर्य, नियताकार ग्रहण से स्पष्ट हो जायेगा कि वह नियत अर्थ से ही जनित है।) किन्तु ऐसा उत्तर उचित नहीं हैं। कारण, प्रतिनियम यानी नियत तत्तदाकार ग्रहण किस आधार 10 पर होगा यही तो यहाँ विचाराधीन है। यहाँ यह ध्यान में रहे कि वैभाषिकमत निराकार ज्ञानवादी एवं बाह्यार्थप्रत्यक्षवादी है, जब कि साकारज्ञानवादी सौत्रान्तिक बाह्यार्थ को अनुमेय मानता है, प्रत्यक्ष नहीं। तब विज्ञानवादी साकारज्ञान मानता है, बाह्यार्थ के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता। * अनुमान से या अर्थापत्ति से बाह्यार्थ का ग्रहण असंभव * ____ ज्ञानवाद में बाह्यार्थ के निह्नव का दूषण दूर करने के लिये यदि सौत्रान्तिक बौद्ध की ओर 15 से कहा जाय कि - ‘साकार प्रत्यक्षज्ञान से बाह्यार्थ का भान न होने पर भी आकारात्मक लिंग से बाह्यार्थ की अनुमिति जरूर हो सकती है। इस से ही ज्ञान की साकारता सार्थक हो जाती है।' - ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि आकार और बाह्यार्थ के बीच प्रतिबन्ध यानी व्याप्ति की सिद्धि करना होगा। जब यहाँ बाह्यार्थ ही कभी भी प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है तो उस के व्याप्य ज्ञानाकार की सिद्धि की बात ही कहाँ ? न लिंग सिद्ध है न लिंगी, तब व्याप्ति भी सिद्ध नहीं हो सकती। व्याप्ति 20 के विना अनुमान का अवतार अशक्य है, तो अनुमान से बाह्यार्थ की सिद्धि कैसे होगी ? यदि कहें कि - बाह्यार्थ की सिद्धि, ज्ञानाकार की अन्यथा अनुपपत्ति स्वरूप अर्थापत्ति से होगी - तो यह असंगत है। अन्यथाअनुपपन्न किसी पदार्थ के विना यदि अर्थापत्ति से साक्षात् अर्थस्वरूप का भान होगा तो वह अर्थापत्ति न हो कर प्रत्यक्षात्मा बन बैठेगी। यदि कहें कि - अर्थापत्ति से साक्षात् अर्थस्वरूपभान नहीं मानेंगे किन्तु अनुमान की तरह परोक्ष अर्थभान मानेंगे. इस तरह अर्थापत्ति 25 प्रमाणभूत मान सकते हैं। - यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनुमान में जैसे प्रामाण्य की नींव है - लिंगजन्यत्व, जहाँ लिंग में अपने साध्य अर्थ की व्याप्ति गृहीत रहती है; अर्थापत्ति में ऐसी कोई प्रामाण्य की नींव नहीं है, अतः अर्थापत्ति यहाँ प्रमाण नहीं है। अर्थापत्ति किसी भी आकार से अत्यन्त परोक्ष अर्थ तक पहुँच नहीं पाती, तो अर्थापत्ति फलित ज्ञान की विषयता परोक्ष अर्थ में कैसे संगत हो सकती है ? अनुमान का विषय तो प्रत्यक्ष से पूर्वगृहीत रहता है, इसलिये अनुमान के द्वारा ॐ 'यह तो पहले देखा हुआ है' इस ढंग से अनुमान का विषय ज्ञानगृहीत हो सकता है। अर्थापत्ति का विषय पूर्वदृष्ट न होने से अर्थापत्ति के द्वारा बाह्यार्थ की प्रतीति अशक्य है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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